बराबरी का हक (महिला दिवस विशेष)
हर साल जब भी 8 मार्च का दिन पास आने लगता है, तब एक ही ख्याल आता है कि पुरूष और महिला दोनों से बने इस समाज में केवल महिला के लिये ही दिवस विशेष क्यों है? क्या वह खास है, या आम को आम रखने की कवायद के लिये खास दिन पर कोशिश की जा रही है। कहीं न कहीं सच्चाई इसी के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है। बात इतनी सी है कि जीने के लिये इंसान को रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ उसके भावनाओं को मान-सम्मान भी मिलना जरूरी है, जो सदियों से पुरूषों ने तो हासिल कर लिया लेकिन अधिकांश महिलाएं अब भी जद्दोजहद करती नजर आती है। आश्चर्य की बात है कि खुद महिलाएं ही अन्य महिलाओं को उनके उचित अधिकार को हासिल करने में रोड़ा बनती रही हैं।
पुरूष तो मात्र उनका अनुसरण कर रहे हैं। मसलन जन्म के साथ ही लड़का बाबू साहब, युवराज, राजा के नाम से पुकारा जाता है तो वहीं लड़की को सलीका विरासत में नसीब होने लगता है। न खुलकर हंसने की आजादी, न अपनी बात रखने की आजादी। हर बात में बस एक सीख कि अभी से सब सीख लो, दूसरे घर जाना है। भला, कोई यह सोचता है कि अपने घर में आजादी नहीं मिली तो दूसरे घर में कौन सी जगह होगी। वाकई लड़की के साथ अन्याय उसके जन्मदाता के घर ही होता है। लड़के और लड़की में भेद-भाव माता-पिता व उनके रिश्तेदार ही करते हैं। बड़े होकर जमाने के साथ चलना है, लेकिन इसके लिये सीख अलग-अलग है।
अक्सर गौर किया होगा कि एक ही माता-पिता की दो संतानो(एक लड़का दूसरी लड़की) के हाव-भाव काफी भिन्न नजर आते हैं। लड़की शांत तो वहीं लड़का नटखट दिखता है। ऐसा जन्म से ही नहीं बल्कि पालन-पोषण में फर्क के चलते भी होता है। समस्या लड़कों की नहीं है कि वह बचपन से शरारती है, बल्कि इस बात से है कि लड़कियों के कोमल मन ने रोट-टोक के कारण शरारत करना छोड़ दिया। धीरे-धीरे घर एवं समाज को सुनते-सुनते स्वयं को सुनना बंद कर दिया।
ऐसे में उसमे आत्मविश्वास कहां से आ सकता है, यह गौर करने की बात है। बचपन से सारी दबिश के बाद समाज उस लड़की से यह उम्मीद करता है, कि वह एक नये घर-संसार की निर्माण करे। अपने बच्चों का भविष्य बनाए, उसे दुनिया में चलना सिखाए। यह तभी संभव है, जब इन सारी जिम्मेदारियों का वहन करने के लिये पुरूषों के बराबर उस महिला के भी कंधे उतने ही मजबूत हों। उसे अपनी बात पुरूषों की तरह आसानी से रखने का हक हो। उसकी खुशी, गम, इच्छा अनिच्छा सभी का जन्मदाता के घर में बराबर मान सम्मान हो।
बदलाव की शुरूआत कभी दूसरे घर से नहीं बल्कि अपने घर से ही होती है। वास्तव में लड़कियों के लिये नजर और नजरिया दोनो बदलने की जरूरत है, तभी समाज में बदलाव संभव है। बेटा-बेटी और बेटा-बहू दोनों की भावनाओं का समान रूप से मोल है, यह समझना बहुत जरूरी है। कई बार इस स्वीकार्यता के बावजूद नाते-रिश्तेदार भी अपने दोहरे नजरिये के साथ इसे तोलते हैं। वजह हमारी सामाजिक व्यवस्था है। जहां लड़कियों से भेदभाव इसलिये भी किया जाता है कि वह एक दिन अपने जन्मदाता(पालक) को छोड़कर दूसरे घर चली जाएगी।
लड़का नालायक ही सही मगर वह पास तो रहेगा। बूढ़े होते माता-पिता के लिये जिम्मेदार होगा। अधिकतर मामलों में यह व्यवहारिक भी है। लड़कियां शादी के बाद अपने नये जीवन में व्यस्त हो जाती हैं। कभी पारिवारिक दबाव तो कभी समय की कमी, माता-पिता पीछे छूट जाते हैं। ऐसे में समय की मांग को देखते हुए कई नये कानून भी अस्तित्व में आये जहां माता-पिता की देखभाल के लिये शादी-शुदा बेटी को भी उतना ही जिम्मेदार बनाया गया है, जितना कि बेटे की जिम्मेदारी है। ऐसे में कानून को मानने के साथ समाज को भी यह स्वीकार करना होगा कि बेटी को अपने माता-पिता का ख्याल रखने का पूरा हक है। तब शायद माता-पिता बेटे-बेटी का पालन बराबरी के साथ इस भरोसे से करेंगे कि बेटी भी बेटे के समान उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगी। उनकी यह अपेक्षा लड़कियों को समाज में बराबरी का हक दिलाएगी, यह तय है।