हम बच्चों को अच्छा बनना कब सिखाएंगे?

अमित तिवारी

हम बच्चों को अच्छा बनना कब सिखाएंगेनिश्चित तौर पर इस प्रश्न से आप में से बहुत से लोग थोड़ा चौंक गए होंगे।

‘भला ये भी कोई प्रश्न है। बच्चों को अच्छा बनना हर माता-पिता सिखाते हैं। इसमें कौन सी कहने वाली बात है। कौन अपने बच्चों को बुरा बनाना चाहता है? ऐसे तो कोई माता-पिता नहीं मिलेंगे, जो बच्चों को अच्छा ना बनाना चाहते हों।‘

ऐसी ही कुछ बातें आपके मन में भी आ रही होंगी। इन बातों का मन में आना स्वाभाविक है। आप भी माता-पिता के रूप में अपने बच्चों को अच्छा ही तो बनाना चाहते हैं।

अब आप सोच रहे हैं कि जब ऐसा ही होता है और यह सब स्वाभाविक ही है, तो फिर यह प्रश्न क्यों आया है?

आज हम इसी प्रश्न को समझेंगे और इसके समाधान तक पहुंचने का प्रयास करेंगे।

पहली बात, प्रश्न यह नहीं है कि हम बच्चों को अच्छा बनाना चाहते हैं या नहीं? प्रश्न यह है कि हम बच्चों को अच्छा बनना कब सिखाएंगे?

नहीं समझे?

इसे कुछ और प्रश्नों के माध्यम से थोड़ा सरल बनाते हैं।

आप में से कितने लोग हैं, जो कभी बच्चों के साथ बैठकर उन्हें अच्छे और बुरे के अंतर के बारे में समझाते हैं?

आपने कब बच्चों को अच्छे और बुरे के बीच का अंतर समझाने का प्रयास किया है?

आपने कब बच्चों को बुरे होने के नुकसान के बारे में बताया है?

आपने कब बच्चों को यह बताया है कि अच्छा होने से व्यक्तित्व पर क्या प्रभाव पड़ता है?

आपने कब बच्चों को उदाहरण के साथ यह समझाने का प्रयास किया है कि उनका अच्छा होना स्वयं उनके लिए, परिवार के लिए और समाज के लिए कितना अच्छा है?

आपने कब बच्चों को उस प्रशंसा का आनंद लेना सिखाया है, जो उन्हें कोई अच्छा काम करने पर मिलती है?

आपने कब उन्हें प्रशंसा और डांट के बीच अंतर को अनुभव करने के लिए प्रेरित किया है और उनमें यह भाव जागृत किया है कि अच्छे कार्यों की प्रशंसा मन को प्रफुल्लित कर देती है?

अधिकतर लोगों के मामले में इन प्रश्नों के उत्तर प्राय: ‘नहीं’ और ‘कभी नहीं’ में ही मिलते हैं।

वास्तविकता यह है कि हर माता-पिता यह चाहते तो हैं कि बच्चे अच्छे बनेंलेकिन उन्हें अच्छे बनाने के लिए कभी भी समर्पित तरीके से प्रयास नहीं करते हैं।

उन्हें किसी गलत बात से दूर करने के लिए हमारा सबसे सामान्य हथियार होता है, उन्हें डांटना। जब लगा कि बच्चे ने कुछ गलत किया है या करने जा रहा है, तो उसे जोर से डांट दिया जाता है। अमूमन बच्चे उस डांट से रुक भी जाते हैं।

लेकिन यह बीमारी के इलाज का एलोपैथिक तरीका है। यह ऐसे ही है कि जैसे दर्द होने पर पेनकिलर खा लेना। पेनकिलर दर्द का अनुभव नहीं होने देती है। लेकिन उससे दर्द ठीक नहीं होता है। दर्द को ठीक करने के लिए विधिवत तरीके से उसके कारण को समझना और उसका इलाज करना होगा।

इसी तरह, बच्चों को बस गलत काम के लिए डांट देना पेनकिलर देने जैसा है। तत्काल राहत के लिए तो यह ठीक है, लेकिन अगर दर्द दोबारा उभरे तो उसके कारण का इलाज करना चाहिए।

अगर बच्चे को किसी एक बात के लिए दोबारा डांटने की नौबत आ जाए, इसका अर्थ है कि पेनकिलर से काम नहीं चलेगा। उसे अपने पास बुलाकर बिठाइए और यह समझाने का प्रयास कीजिए कि आप उसे जिस काम को करने से रोक रहे हैं, उससे नुकसान क्या है?

उसे यह समझाइए कि वह काम जो उसे आज अच्छा लग रहा है, उसका परिणाम किस तरह से उसके जीवन पर बुरा प्रभाव डाल सकता है?

उसे यह भी बताइए कि उस काम को न करने से उसके जीवन पर कैसे अच्छा असर पड़ सकता है।

उदाहरण के तौर पर यदि बच्चा मोबाइल में गेम खेलना चाहता है, तो उसे डांटकर बचा पाना पूरी तरह संभव नहीं है। वह आपसे छिपकर गेम खेलने की कोशिश करेगा। नहीं मौका मिलेगा तो दोस्तों के घर खेलने के बहाने जाएगा और गेम में लग जाएगा। आप बार-बार उसे डांटते रहेंगे।

इससे कोई परिणाम नहीं निकल सकता है।

वह तब तक गेम नहीं छोड़ेगा, जब तक उसे गेम के कारण हो सकने वाले नुकसान का अंदाजा न हो जाए। आप उसे समझाइए कि गेम से किस तरह लत लग सकती है। आप उसे बताइए कि अभी उसने कुछ ही दिन गेम खेला है, लेकिन उसका मन इसमें इतना लग गया है वह माता-पिता से छिपकर भी खेलने को तैयार है। यदि वह कुछ और दिन खेलता रहा तो उसका मन इसे बिलकुल छोड़ने का नहीं करेगा। इससे उसकी पढ़ाई पर बुरा असर पड़ेगा। इससे जो टीचर उसे अच्छा बच्चा कहते हैं, वो उसे कमजोर बच्चा कहने लगेंगे।

और सबसे बड़ी बात, स्वयं भी किसी भी स्वरूप में उस बुराई से बचकर रहें। आपका आचरण बच्चे के लिए सबसे बड़ा उदाहरण होता है। आप कह सकते हैं कि देखो हम भी इसीलिए नहीं खेलते हैं गेम। हमें भी गेम की लत लग जाएगी तो हम तुम्हारे साथ समय नहीं बिता पाएंगे।

विश्वास कीजिए, जैसे ही बच्चे को उस गलत बात या आदत के नुकसान का अंदाजा होगा, वह स्वयं ही प्रयास करके उससे दूर होने लगेगा।

यह तो मात्र एक उदाहरण है।

इसी तरह से जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी बच्चों को समय दीजिए और उन्हें अच्छी बातों के बारे में बताइए। उन्हें बताइए कि बड़ों से कैसे बात करना अच्छा है। उन्हें बड़ों के पैर छूना सिखाइए, इससे बच्चों के स्वभाव में नम्रता आती है। उन्हें सभी का सम्मान करना सिखाइए। उन्हें बुरी बात के नुकसान से ज्यादा अच्छी बातों के लाभ के बारे में बताइए।

हमें इस बात को समझना होगा कि सिर्फ हमारे चाहने से बच्चे अच्छे नहीं हो सकते हैंइसके लिए हमें प्रयास करना होगा। उन्हें समय देना होगा। उनके साथ संवाद स्थापित करना होगा। संवाद से संस्कार मिलते हैं। संस्कार से जीवन सफल होने की राह बनती है। सत्य तो यह है कि हम बच्चों को समय ही नहीं देते इस बारे में कुछ समझाने के लिए। बच्चों को समय देने का अर्थ हमें बस यह समझ आता है कि उनके साथ खेल लिएउन्हें कहीं घुमा लाएउन्हें कुछ दिखा लाए। बस इन्हीं सब कार्यों के लिए समय निकालकर हमें लगता है कि हम अच्छे माता-पिता की तरह बच्चों को समय दे रहे हैं और शायद इतना करना ही उनके जीवन को दिशा देने के लिए पर्याप्त हो जाएगा।

और जब इतना सब करने के बाद भी बच्चे अच्छी आदतों और संस्कारों के मामले में हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप व्यवहार नहीं करते हैं, तो कभी हम उन पर चिल्लाते हैं और कभी अपनी विफलता पर निराश होने लगते हैं।

ऐसा न करें।

बच्चों को संस्कार देने के लिए कुछ घंटे की आउटिंग जरूरी नहीं हैयह कुछ मिनटों की बात से हो सकता है। उनकी आदतों और व्यवहार पर नजर रखें। और समय-समय पर थोड़ा सा समय निकालें और उनकी हर अच्छी बात के लिए उनकी प्रशंसा करें। बच्चा बिना कहे होमवर्क करता हैबड़ों का सम्मान करता हैआपकी बातें मानता हैआपकी बातों को काटता नहीं हैतो इन आदतों के लिए उसकी प्रशंसा करें।

कभी कुछ ऐसा करता है, जो आपको लगता है कि उसे नहीं करना चाहिए, तो तत्काल रोकने के लिए भले ही डांट दें। लेकिन बाद में उसे अपने पास बिठाएं और समझाएं कि उस काम को करना क्यों गलत है। इससे उसे क्या नुकसान हो सकता है।

प्रयास करेंगे तो निसंदेह परिणाम मिलेगा।

(समाधान है… कॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिए… क्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)

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