क्या संबंधों में अपेक्षाएं रखना गलत है? भाग-1

अमित तिवारी

कुछ बातें जो प्राय: हम सभी कहते-सुनते हैं, कि व्यक्ति को संबंधों से अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। अपेक्षाओं से संबंध कमजोर होते हैं। अपेक्षा के कारण ही हमें दुख होता है। किसी से कोई अपेक्षा ही न रहे, तो जीवन सुखी रह सकता है।
आज हम अपने लेख में इसी बात पर चर्चा करेंगे कि क्या संबंध अपेक्षाविहीन हो सकते हैं? क्या यह संभव है कि किसी को किसी भी संबंध से कोई अपेक्षा न रहे? क्या वास्तव में संबंधों से कोई अपेक्षा रखना गलत बात है?
एक शब्द में यदि उत्तर देना हो, तो इन सभी प्रश्नों का उत्तर होगा – ‘नहीं’।
मूलत: संबंध अपेक्षाविहीन नहीं होते हैं। किसी भी संबंध से कोई भी अपेक्षा न रखी जाए, यह संभव नहीं है और संबंधों से अपेक्षा रखना गलत बात नहीं है।
हालांकि बात बस यहीं खत्म नहीं हो जाती है।
स्पष्ट रूप से मिले ये उत्तर मन में उलझन पैदा करते हैं। स्वाभाविक है कि इनके बाद हमारे मन में अन्य प्रश्न आने लगें, जैसे क्या संबंधों से अपेक्षा रखना स्वार्थ नहीं है? और यदि यह स्वार्थ है, तो यह सही कैसे हो सकता है? और यदि अपेक्षाएं रखना सही है तो फिर लोग ऐसा कहते ही क्यों हैं कि संबंधों से अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए?
इसे बिंदुवार तरीके से समझते हैं।
सबसे पहले यह समझने का प्रयास करना होगा कि संबंध कहते किसे हैं?
संबंध शब्द दो हिस्सों में बंटा है – सम् + बंध।
इसमें सम् उपसर्ग का प्रयोग किया गया है। इसकी व्युत्पत्ति ‘सम्यक’ शब्द से होती है।
सम्यक शब्द से कई अर्थ बनते हैं, जैसे- संपूर्ण, समस्त, सब प्रकार से, परिपूर्ण आदि। (कुछ स्थानों पर भगवान बुद्ध का एक नाम भी सम्यक कहा जाता है।)
इन सभी अर्थों में जब हम संबंध शब्द का अर्थ देखते हैं तो ऐसा बंधन जो संपूर्ण हो। ऐसा बंधन जो सब प्रकार से बांधता हो। ऐसा बंधन जो हर तरफ से व्याप्त हो। ऐसा बंधन जो परिपूर्ण हो।
अर्थात हम यदि जीवन में यह मान रहे हैं कि किसी से हमारा कोई संबंध है, तो फिर उस बंधन में कदाचित किसी न किसी अर्थ में एक संपूर्णता होनी ही चाहिए।
सम्यक का अर्थ उचित या अनुकूल भी होता है।
इस स्थिति में संबंध शब्द का अर्थ हुआ उचित या अनुकूल बंधन।
इस अर्थ के आधार पर विश्लेषण करें तो हम जीवन में जिसके साथ बंधन को अनुकूल और उचित पाते हैं, वही हमारा संबंधी होता है।

संभवत: अभी तक की व्याख्या थोड़ी जटिल दिशा में जा रही है। अभी इस लेख से आपका मन संबंध स्थापित नहीं कर पा रहा है।
कारण यह है कि अभी इसने संपूर्णता नहीं प्राप्त की है। इसका बंधन अपूर्ण है। इस बंधन में सहजता नहीं लग रही है, इसलिए मन का संबंध भी नहीं बन पा रहा है।

अब हम आपके मन के भाव को संपूर्णता में समाहित करने का प्रयास करते हैं, जिससे आपका मन इस लेख से संबंध स्थापित कर सके।

सहज शब्दों में कहें तो जब भी हम यह कहते हैं कि किसी से हमारा संबंध है, तो उसमें एक बंधन निहित होता है। क्या बिना किसी उद्देश्य और अपेक्षा के कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह के बंधन को स्वीकार कर सकता है? कदापि नहीं। हम सहजता से यदि किसी बंधन को स्वीकार करते हैं, तो उसका अर्थ है कि कहीं न कहीं वह बंधन हमें या हमारे विचारों को संपूर्णता, सम्यकता और सहजता प्रदान करता है।

किसी बंधन से संपूर्णता, सम्यकता या सहजता की यह इच्छा ही उस संबंध से हमारी अपेक्षा बन जाती है।
इससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि संबंध बिना अपेक्षा के नहीं होते हैं और संबंधों से अपेक्षा होना गलत भी नहीं है।
वस्तुत: हर संबंध दोनों पक्षों की अपेक्षाओं से चलता है। माता-पिता एवं संतान का संबंध, पति एवं पत्नी का संबंध, मित्रों के बीच का संबंध, कार्यालय में वरिष्ठ एवं कनिष्ठ के बीच का संबंध या अन्य जो भी संबंध आप सोच सकते हैं, सभी में दोनों पक्षों की अपेक्षाएं ही उस संबंध को चलाती हैं।

इसलिए जीवन में ऐसे संबंध की कल्पना करना ही गलत है, जिसमें कोई अपेक्षा न हो।
अब इसमें एक प्रश्न यह भी मन में आ सकता है कि क्या प्रेम के वश में बने संबंध भी अपेक्षाविहीन नहीं हो सकते हैं? प्राय: लोग निस्वार्थ प्रेम की बात करते हैं। क्या निस्वार्थ प्रेम नहीं होता?
इसका उत्तर भी है – नहीं।
प्रेम हम किसी से करते क्यों हैं? या हमें प्रेम किसी से होता क्यों है?
क्या हम किसी से उसकी प्रसन्नता के लिए प्रेम करते हैं? – नहीं।
प्रेम हम सामने वाले की प्रसन्नता के लिए नहीं, अपनी प्रसन्नता के लिए करते हैं।

बृहदारण्यक उपनिषद के दूसरे अध्याय के चतुर्थ ब्राह्मण का पांचवां श्लोक है
न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति।
न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवति, आत्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति।
इसमें ऋषि याज्ञवल्क्य कहते हैं – पति इसलिए प्रिय नहीं होता है कि उसमें पति का हित है, अपितु वह अपने हित के लिए (पत्नी को) प्रिय होता है। पत्नी इसलिए प्रिय नहीं होती कि उसमें पत्नी का हित है, अपितु वह अपने हित के लिए (पति को) प्रिय होती है।

इस श्लोक का मूल भी यही है कि कोई हमें प्रिय भी इसीलिए होता है, क्योंकि उसका प्रिय लगना हमें अच्छा अनुभव कराता है। यह अच्छा अनुभव करना ही उस प्रेम संबंध में हमारा स्वार्थ होता है।
किसी भी संबंध का अस्तित्व अपेक्षाओं से ही है। यदि अपेक्षाएं न रह जाएं तो संबंध ही नहीं रह जाएगा।
अब प्रश्न आता है कि यदि अपेक्षा होना ही संबंध का आधार है और अपेक्षाओं से ही संबंध चलते हैं, तो फिर संबंध टूटते क्यों हैं?
इस प्रश्न के उत्तर को समझने के लिए हमें अपेक्षा, स्वार्थ और अभिमान की तिकड़ी को समझना होगा।
इस तिकड़ी पर विस्तार से चर्चा करेंगे लेख के अगले भाग में।
तब तक इस आशा के साथ लेखन को विश्राम देते हैं कि यह लेख आपके मन से संबंध बनाने में सफल रहा होगा।

2 thoughts on “क्या संबंधों में अपेक्षाएं रखना गलत है? भाग-1

  1. i think aspiration is a cementing force between any relation. the much aspiration, the more cemented relation.

    1. बिल्कुल सहमत हूं आपसे प्रियव्रत जी। प्रारब्ध से मिले संबंधों के अतिरिक्त लगभग सभी संबंध बनते ही अपेक्षा से हैं। गहरी अपेक्षा और अपेक्षाओं पर खरा उतरना संबंध को गहरा बनाता है।

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