वर्तमान कभी नहीं आता…

अमित तिवारी

यह तो हम बचपन से सुनते चले आए हैं कि कल कभी नहीं आता। भूतकाल और भविष्यकाल दोनों हमारे नियंत्रण से बाहर होते हैं। हमें केवल वर्तमान के बारे में सोचना चाहिए। वर्तमान ही हमारे हाथ में है। वर्तमान पर ही हमारा नियंत्रण है।

क्या सच में ऐसा है?

नहीं।

सच तो यह है कि वर्तमान कभी आता ही नहीं है।

चौंकिए मत!

आज अपने इस स्तंभ में हम इसी विषय पर चर्चा करने वाले हैं।

आज का प्रश्न है कि क्या वर्तमान कभी आता है?

क्या हमें केवल वर्तमान के बारे में सोचना चाहिए?

क्या बीते हुए कल और आने वाले कल की चिंता करना वास्तव में निरर्थक है?

वैसे तो समय अपने आप में बहुत विस्तृत विषय है। सूक्ष्मता में देखें तो समय एक आयाम है। इसमें आने और बीतने जैसा कुछ नहीं होता है। हालांकि अभी हम समय की उस सूक्ष्म व्याख्या पर चर्चा नहीं करेंगे। हमारा विषय समय के स्थूल स्वरूप पर ही केंद्रित है। अपने इन प्रश्नों के समाधान पर बढ़ने से पहले हमें स्थूल व्याख्या के आधार पर समय की तीन अवस्थाओं के बारे में समझना होगा। ये तीन अवस्थाएं हैं – भूत, वर्तमान एवं भविष्य।

भूत अर्थात वह समय जो बीत गया है।

वर्तमान अर्थात वह समय जो चल रहा है।

भविष्य अर्थात वह समय जो आने वाला है।

समय की इकाई को जितना बड़ा करके देखेंगे, इन तीनों अवस्थाओं को उतनी आसानी से समझ जाएंगे।

वर्ष की बात करें तो यह वर्ष चल रहा है। इससे पहले कई वर्ष बीत चुके हैं और आगे कई वर्ष आने वाले हैं।

महीने की बात करें तो यह महीना चल रहा है। इससे पहले कई महीने बीत चुके हैं और आगे कई महीने आने वाले हैं।

सप्ताह की बात करें तो यह सप्ताह चल रहा है। इससे पहले कई सप्ताह बीत चुके हैं और कई सप्ताह आने वाले हैं।

दिन की बात करें तो आज चल रहा है। कई कल बीत चुके हैं और कई कल आने वाले हैं।

घंटे की बात करें तो यह घंटा चल रहा है। कई घंटे बीत चुके हैं और कई घंटे आने वाले हैं।

मिनट की बात करें तो यह मिनट चल रहा है। कई मिनट बीत चुके हैं और कई मिनट आने वाले हैं।

सेकेंड की बात करें तो हर शब्द के साथ एक सेकेंड बीतता जा रहा है।

पल की बात करें तो हमारा कोई शब्द पूरा होने से पहले ही पल बीतता जा रहा है।

इन उदाहरणों से एक निष्कर्ष निकल रहा है कि समय की इकाई जितनी छोटी होती जाती है, आपके वर्तमान की सीमा भी उतनी ही कम होती जाती है। हफ्ते, दिन या वर्ष की बात हो तो वर्तमान बहुत बड़ा लगता है। हमें लगता है कि वह समय, जिस पर हमारा नियंत्रण है, वह बहुत बड़ा है।

बात जैसे-जैसे घंटे, मिनट और सेकेंड तक पहुंचती है, वर्तमान का दायरा सिमटता जाता है और अंत में एक स्थिति आती है, जब हमारे पास वर्तमान को समझने और परिभाषित कर पाने के लिए समय ही नहीं होता है। यानी वह समय, जिस पर आप अपना नियंत्रण समझते हैं, उसका अस्तित्व लगभग नगण्य हो जाता है।

यही जीवन है। जीवन में सब कुछ क्षणिक रूप से घटित होता है। और जैसे ही हम क्षण के रूप में समय को देखते हैं, तुरंत यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान जैसा तो कुछ होता ही नहीं है। यानी हमारे नियंत्रण में तो कभी भी कुछ होता ही नहीं है।

जीवन मूलत: भूत और भविष्य के बीच का सेतु है। जीवन का होना ही वर्तमान है किंतु इस जीवन में कोई भी क्षण वर्तमान नहीं होता है। या तो आप किसी क्षण को जी चुके हैं या फिर जीने वाले हैं। किसी भविष्य के क्षण के भूत हो जाने के बीच एक सूत्र के रूप में हमारा प्राण होता है और बस वह प्राण ही वर्तमान है। परंतु समय के स्तर पर कुछ भी वर्तमान नहीं होता है।

अब मन में प्रश्न आएगा कि आखिर ये जो कहा जाता है कि आज को जीयो, आज के बारे सोचो, आज को अच्छे से बिताओ, यह सब क्या है? और इन्हें कहां तक सही माना जा सकता है?

वस्तुत: वर्तमान में जीना एक भ्रम है और दिग्भ्रमित करने वाला तथ्य है। केवल आज को सोचकर जीने जैसा कुछ नहीं हो सकता है। जैसा हमने ऊपर कहा कि जीवन मूलत: भूत और भविष्य के बीच का सेतु है। आप जिसे आज के बारे में सोचना कहते हैं, मूलत: वह सोच आपके मन में कहां से आती है? आपके भूत के अनुभव से ही तो आती है। और आज के लिए जो सोच आपके मन में है, वह भी तो आज के उन पलों के लिए है, जिन्हें अभी आपने जीया नहीं है अर्थात वो पल जो भविष्य हैं।

वर्तमान को सोचना या वर्तमान को जीना कहां संभव होता है?

जीवन जीने का सिद्धांत यही है कि भूत से सीखे हुए अनुभव के आधार पर भविष्य के परिणाम को ध्यान में रखते हुए जीते रहें। नियंत्रण किसी भी पल पर आपका नहीं है। आपको हर पल भूत के अनुभव और भविष्य के अनुमान के बीच ही जीना होता है। जब सड़क पर आप कोई गाड़ी चला रहे होते हैं, तो असल में गाड़ी का वह चलना भी वर्तमान थोड़े ही होता है। वह हर बीते हुए पल और हर बीती हुई दूरी से मिले अनुभव के आधार सामने बची हुई दूरी को तय करने के आपके सटीक अनुमान पर निर्भर करता है। आप देखते हैं कि दूसरी तरफ से कोई बेतहाशा आ रहा है, तो आप एक अनुमान लगाकर ही तो अपनी गाड़ी का ब्रेक लगाते हैं या उसे घुमाते हैं। भविष्य के बारे में तो वहां भी आपको सोचना ही होता है और भूत के अनुभवों को ध्यान में रखना ही पड़ता है।

अब जबकि यह तय है कि हमें हमेशा भूत के अनुभव और भविष्य के अनुमान के बीच सेतु की तरह ही निर्णय लेने होते हैं, तो बुद्धिमत्ता यही है कि भूत के जितने अधिकतम अनुभवों को ध्यान में रखें और भविष्य का जितने बेहतर तरीके से अनुमान लगाते हुए निर्णय ले सकें, जीवन में उतना बेहतर परिणाम मिलने की आशा रहेगी।

नियंत्रक और नियंता तो ईश्वर ही है।

(समाधान है… कॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिए… क्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)

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