क्या संबंधों में अपेक्षाएं रखना गलत है? – भाग-2 (स्वार्थ और अभिमान)

अमित तिवारी
यह तो हम समझ ही चुके हैं कि संबंध चाहे प्रारब्ध के कारण बना हो (माता-पिता और संतान, भाई और बहन तथा अन्य पारिवारिक संबंध), प्रेम के कारण बना हो (मित्र) या परिस्थिति के कारण बना हो (मालिक-कर्मचारी या सामान्य जीवनचर्या के पालन के दौरान बने अनेकानेक संबंध) सभी में दोनों पक्षों की अपेक्षाएं जुड़ी होती हैं।
अपेक्षा ना रह जाए तो प्रेम और परिस्थिति के कारण बने संबंध खत्म हो जाते हैं। वहीं प्रारब्ध के कारण बने संबंध भी कहने के लिए खत्म भले ना होते हों, लेकिन भाव के स्तर पर खत्म हो जाते हैं।
अब आपके मन में प्रश्न आएगा कि जब हर संबंध में अपेक्षा होती ही है और अपेक्षा होना गलत भी नहीं है, तो फिर संबंध टूटते क्यों हैं? क्या सभी संबंध इसीलिए टूटते हैं कि अपेक्षा खत्म हो जाती है या कोई और कारण है?
आज हम इसी को समझने का प्रयास करेंगे।
मूलतः अपेक्षाएं तो संबंध बनाती ही हैं और संबंधों में अपेक्षाएं होती ही हैं। ऐसे में संबंधों के टूटने का कारण प्रायः अपेक्षाओं का पूरा ना होना होता है…
और बस… यहीं से अपेक्षा और स्वार्थ के बीच के अंतर को समझने की कड़ी खुलती है…
असल में जब किसी अपेक्षा का पूरा ना होना संबंध के खत्म होने का कारण बन जाए… तब वह अपेक्षा नहीं स्वार्थ है…
यहां एक बात उल्लेखनीय है कि परिस्थिति के कारण बने संबंध तो टिके ही स्वार्थ के कारण हैं। जैसे ही किसी एक पक्ष का स्वार्थ नहीं पूरा होगा… संबंध खत्म हो जाएगा… फिर दोनों ही पक्ष उस स्वार्थ की पूर्ति के लिए किसी और से उस संबंध में बंध जाएंगे…
जैसे मालिक के मन का काम कर्मचारी करने में सक्षम नहीं रह जाए… या कर्मचारी के मन का वेतन मालिक नहीं दे… तो संबंध खत्म हो जाएगा… फिर दोनों ही अपनी-अपनी इच्छा से उस संबंध में अन्य को स्थापित कर लेंगे…

इसमें कुछ भी बुरा नहीं है…

लेकिन जब प्रेम या प्रारब्ध के संबंधों में स्वार्थ हावी होने लगे, तो गलत है…
संतान माता-पिता से इसलिए संबंध तोड़ने की बात करे… क्योंकि माता पिता उसे यूएसए के कॉलेज में एडमिशन दिला पाने की उसकी अपेक्षा को पूरा नहीं कर पाए… तो यह अपेक्षा स्वार्थ है… और इसके कारण संबंध को अपमानित करना गलत है…
प्रेम का संबंध तो बस प्रेम ही पाने की अपेक्षा रखता है।
प्रेम के अतिरिक्‍त विभिन्‍न परिस्थितियों में सहयोग और साथ देने की अपेक्षा स्वाभाविक तो है, लेकिन बस इसलिए संबंध तोड़ने का विचार मन में नहीं आ सकता कि सामने वाले ने किसी परिस्थिति विशेष में हमारा साथ नहीं दिया…
प्रेम में प्रेम की अपेक्षा के अतिरिक्त किसी अन्य अपेक्षा के कारण संबंध तोड़ने का विचार मन में आने का अर्थ यही है कि प्रेम पर स्वार्थ हावी हो गया…
जिस भी पक्ष की तरफ से ऐसा हो…वह गलत है…
और ऐसी परिस्थति में यदि समय रहते दोनों पक्ष न समझें तो संबंध टूट जाता है।
स्वार्थ के अतिरिक्त संबंध टूटने का बड़ा कारण बनता है अभिमान।
असल में अपेक्षा पूरी ना होने पर हम सिर्फ इसलिए संबंध से दूर नहीं जाना चाहते हैं कि अपेक्षा पूरी नहीं हुई… कई बार ऐसा होता है कि हमारा अभिमान सामने आ जाता है। हम अपेक्षा करते हैं कि हम फोन करें और सामने वाला उठा ले…
हमें गुस्सा इसलिये नहीं आता कि फोन नहीं उठा…
हमें गुस्सा इसलिए आता है क्योंकि हमारा अभिमान यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होता कि हमारा फोन नहीं उठा… वह इसे हमारा अपमान मानता है…
जब तक अभिमान नहीं है.. तब तक फोन ना उठाने पर हम यह सोचते हैं कि वह कहीं काम में व्यस्त है…
ज्यादा देर फोन न उठे तो चिंता होने लगती है… और हम अन्य लोग या माध्यमों से पता करने का प्रयास करते हैं…
लेकिन यदि अभिमान आ जाए… तो वह हमें और कुछ नहीं सोचने देता.. हम सीधे यही सोचते हैं कि उसे हमारी फिक्र ही नहीं… हमारा सम्मान ही नहीं उसकी नजर में…
बस अभिमान का यह छौंका लगते ही संबंध टूटने लगता है…
सबसे महत्वपूर्ण बात…
संबंध में संपूर्णता के साथ ही सहजता और समानता का भी भाव होता है…इसलिये जरूरी है कि अपेक्षाओं का सम्मान भी दोनों पक्ष समान रूप से करें…
कई बार हम यह तो जानते हैं कि हमारी क्या अपेक्षा है… लेकिन यह नहीं सोचते कि सामने वाले की क्या अपेक्षा है… और अंततः आपकी यह अनदेखी संबंध के खत्म होने का कारण बन सकती है…
इसमें एक बात हमेशा याद रखें…
संबंध कोई भी हो…
उसमें एक न्यूनतम अपेक्षा सबको रहती है… वह है प्रेम, लगाव और सम्मान पाने की… अन्य सभी अपेक्षाओं का होना और उन्हें पूरा करना, दोनों ही परिस्थितियों पर निर्भर हैं, किंतु प्रेम, लगाव या सम्मान पाने की अपेक्षा हर परिस्थिति में होती है और इसे पूरा करना भी हर परिस्थिति में संभव होता है।
हम किसी भी संबंध में अपने अभिमान को किनारे रखकर बस सामने वाले की इस न्यूनतम अपेक्षा को पूरा करते रहें… तो जीवन के अंतिम क्षण तक साथ देने वाले संबंध बने रहते हैं…
अभिमान का घुन संबंधों में नहीं लगने देना चाहिए…

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