देख सिंदूरी क्षितिज सोचा उषा को ओढ़ लूँ
रंग ने धोखा दिया वह शाम की थी लालिमा।
थक गया संध्या हुई पर पूर्णिमा मिल जाएगी
आश ने धोखा दिया वह थी अमा की कालिमा।
एक ही था दोष बारम्बार क्यों दंडित हुआ ?
हा ठगा। विश्वास ने वह थी दिखावे की क्षमा।
लड़खड़ाया तो जिन्हें पकड़ा झटक उसने दिया
थी नहीं वह जो दिखी निर्दोष उसकी भगिमा।
अनगिनत तारों में भटका शाम से मैं भोर तक
सर्व में खोजा मगर वह एक थी ना पूर्णिमा।
मै पतंगा फड़फड़ाता घूमता ही रह गया
रात की स्याही न थी दिन की मिली जलती शमा।
दूर था आकाश सोचा नील सागर पास है
छल गया भ्रम , थी वहाँ भी व्योम की ही नीलिमा।
उपरोक्त गजल स्वर्गीय बी एन झा द्वारा लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है ।