बड़े – बड़े ऋषि मुनियों ने
सदा से कहा है ,बेटे।
ये दुनिया रंगमंच है
हम सभी अभिनेता हैं।
अभिनय करते हैं।
मैंने इस वाक्य को
आदर्श बनाकर
अपने जीवन में
उतारा है।
इसलिये काम मैं करता नहीं
काम का अभिनय करता हूं।
और जीवन के हर मोड़ पर
टाइप होने से बचने हेतू
अभिनय भी बदलता हूं।
अपनी धर्मपत्नी से
आंख बचाता हूं
नहीं देखने का
खूबसूरत अभिनय करते हुए
दूसरों की पत्नी पर नजरें घुमाता हूं।
फुटकर को ठुकराता हूं
थोक पे मर जाता हूं
बौस के सामने घिघियाता हूं
कलीग के सामने रौब जमाता हूं
अधिनस्थों के सामने
जोर से चिल्लाता हूं
युवती सहकर्मी से
प्रेम से बतियाता हूं।
साथियों से उब जाता हूं
औरतों में डूब जाता हूं
बौस की डांट को
गट – गट पी लेता हूं
घर आकर बच्चों के
कान खींच देता हूं।
मेहमानों के आने पर
सदा मुस्कुराता हूं।
पर उनके जाने पर
गालियां सुनाता हूं
उधार मांगने समय
ट्रेजडी किंग बन आता हूं।
वापसी के नाम पर
विलेन बन जाता हूं।
कितना कहूं ?
ये किस्म – किस्म के अभिनय
परीस्थिति और समयनासुसार करता हूं।
सुबह कुछ और हूं।
दोपहर कुछ और हूं।
रात को कुछ और हूं।
मुझे पहचान पाने में
आप असफल हो जायेगे
कि इस शख्स का
फिर ओरिजनल भी कुछ है क्या ?
जी हाँ है ,
ओरिजनल भी है
पर जब मैं अकेलेपन में
स्वयं का हो जाता हूं
तो रात के अंधेरे में
इस चमकते कोहिनूर को
आँखों से निहारकर
जी भर रो लेता हूं।
पर फिर सुबह होते ही
कामयाबी का पुराना भूत
मुझ पर सवार हो जाता है।
तो रात वाले स्वयं पर हसकर
इस ओरिजनलिटी को
बैकवॉर्ड कहकर
आगे बढ़ लेता हूं।
और खूंटी से उतारकर
दिन भर की यात्रा हेतु
अभिनय की वेशवूषा को
पहन के चल देता हूं।
उपरोक्त्त कविता एवं गीत स्वर्गीय बी एन झा की पुस्तक इन्द्रधनुष से साभार ली गई है।