बड़ा असमंजस में पड़ गया हूँ
कि उनको क्या कहूं ?
जमाने की चलन के मुताबिक
वो मेरे दोस्त हैं।
बीमारी में डॉक्टर के पास ले जाते हैं
सुख में भोजन कराते हैं
गप्पें लड़ाते हैं
घर में बुलाते हैं
हंसते हंसाते हैं
दूसरों की शिकायत कर
मुझे अच्छा बताते हैं।
मगर वो तभी तक मेरे प्रशंसक होते हैं
जब तक मैं समाज में
नो मैन की स्थिति में होता हूँ।
जब भी ,सममैन, होने की
चेष्टा करता हूँ
तो उनकी त्योरियां चढ़ जाती हैं।
वो शुभचिंतक का अभिनय कर
पहले समझाते – बुझाते हैं
सुगर कोटेड कुनैन की
टिकिया खिलाते हैं
पर बाद में जब मेरी
कोशिश जारी रहती है
तो वो पहले तो
कट के रह जाते हैं
कुछ दिन पश्चात मगर
खुली तलवार चलाते हैं।
पर मैं जब उससे भी
किसी तरह बच जाता हूँ
तो बाद में चुपके वो
खंजर चलाने से
बाज नहीं आते हैं।
कोशिश की हर सीढ़ी तक
उनका रवैया
बदलता नहीं है।
पर देखिए बिड़म्बना ,
जब मैं सम मैन से
ऊपर उठ जाता हूँ
विशिष्ट बन जाता हूँ
तो फिर ये न जाने
कहाँ से टपक आते हैं
अस्त्र- शस्त्र फेंककर
मुझमें सट जाते हैं।
दिन रात मेरी ही
विरूदावली गाते हैं।
जाने क्यों मैं उनको
न दूर ही भगाता हूँ।
दुश्मन कहने का भी
न हिम्मत जुटा पाता हूँ।
उसका मुख देखकर
गर्दन तो झुकाता हूँ।
पर फिर दोस्त कहने पर
मजबूर हो जाता हूँ
इसलिए हे सच्चे शुभचिंतको
अगर कोई हो तो
मेरे पास आओ।
कुछ उपाय बताओ।
मुझ पे तरस खाओ।
बड़ा असमंजस में हूँ
इन्हें क्या कहूँ ?
बेमौत मारने वाली
इस पीड़ा को कैसे सहूँ ?
उपयुक्त पक्तियां इन्द्रधनुष पुस्तक बी एन झा द्वारा लिखी गई है।