एकता पुत्र

 

सुनता आया हूँ हटटा कट्टा जवान के
बचपन से ही मैं रूप मे पाती है।
एकता मे बल है थोड़ा घबराती है।
हाँ , है बल और बेटा चूँकि
पर यह चलती है होता है जवान
जब भीड़ के साथ इसलिए माँ के हाथों
एक होकर। राजतिलक करवाके
इसलिए एकता कहलाती है सिंहासन पर
और जब मंज़िल पर आसन जमाता है
रूक जाता है पर माँ की देह की
चलना इसका बोटी बोटी काटकर
तो अपने गर्भ मे छुपी अनेक बना जाता है।
ताकतवर , एक को और कभी कभार
जन्म दें जाती है। यह माता एकता
फूला न समाती है। फूल जैसे कोमल
पर एक अनहोनी हो जाती है व्यक्तित्व को जन्माती है ,
कि माँ बेचारी तो बेटा या तो
इस बेटे को सूली चढ़ जाता है।
जन्म के पश्चात या गोली से मर जाता है।
शिशु रूप मे नहीं

उपयुक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।