रह गई आसक्तियाँ

सड़क के दोनों ओर अद्भुत यह दृश्य क्या ?
घूप मे खड़े, एक बार, दो बार , तीन बार —–
दो विजातीय वृक्ष नैन थके,
सूखे तपते बारबार , लगातार
अपने विचारों मे खोए – चुम्बन और आलिंगन
खड़े शान से टूट गए बंधन
या अकड़े अभिमान से हा। कैसा मधुर मिलन ?
और फिर अचानक अद्भुत यह आकर्षण।
जलद का गर्जन प्रेम तो समर्पण है।
तड़ित की तड़पन एक दूजे मे अपने
जोरों की वारिस का अस्तित्व का अपर्ण है।
तेज़ी से आगमन। अहंकार शून्य।
वारिस – नवजात – सुता धन्य हो प्रकृति,
कोमल शीतलता का तुझे धन्यवाद है अनेक ,
दोनों के ह्रदयों मे वह क्षण , वह पल प्रत्येक
सुखदाई समागम। जब –
और प्रेमबीज का डाली डाली न रही
गौरवमय अंकुरण। पत्तियाँ न पत्तियाँ

क्षण भर पश्चात फिर वृक्ष रहा वृक्ष नहीं
जोरों का पवन बेग रह गई आसक्तियाँ।
अपने मे मगन वेग केवल आसक्तियाँ।
लोगों के उठे नैन

उपयुक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।