समझौता

मानव और मानवता मानव ने कहा , हे प्रिये ,
प्राचीन युगों मे अधीर मत होवो।
लुका – छिपी खेलते थे शांति से काम लो।
कभी मानव आगे बढ़ जाता नहीं तो बिगड़ जाएगी।
कभी मानवता ओवरटेक कर जाती। अपनी गृहस्थी।
गृहस्थी का पहिया आज का क्रान्तिकारी  शब्द ।
ठीठाक चल रहा था सुना नहीं है तुमने ?
पर वर्तमान युग मे कहते है जिसको समझौता।
क्या हो गया मानवता को ? सारी समस्याये।
कि लगता है शायद इसी से सुलझती है।
प्रयास करना छोड़ वह तो हे अर्धागिनी।
निश्चेष्ट हो गई है।तुम्ही पहल करो ना।
पहले यही सोचता था मैं अबकी मानवता भी।
पर मैं ने एक दिन सुबह – सुबह थोड़ी नरम हुई बोली –
दोनों के नोंक – झोक सुन लिए तुमने भी तो सुना होगा।
मानवता क्रोध मे लाल पीली नारियो का क्रांतिकारी नारा ,
चीखकर कह रही थी मानव से समानाधिकार का नारा।
तुमने क्या समझा है अपने आप को ? तो पावर का फिफ्टी फिफ्टी।
कुछ दिनों से देखती हूँ, हो जाय  बटवारा
तुम सदा दौडते हो आगे मानव मुसकाया , कहा –
मुझे बना दिया है, अपनी अनुगामिनी , तुमने मेरे मुँह की।
तुम भूल गए हो , छीन ली बात।
मै तुम्हारी अनुगामिनी नहीं मिलाओ हाथ।
सहगामिनी हूँ। बटवारे हो जाये साथ —-
जब जब मै सहगामिनी, बनने को जब भी सिद्धान्त का।
ओवरटेक करना चाहा धरातल आ जाए।
तो तुमने मेरी गर्दन पकड़कर तो संग संग चलने की बात क्या ?
पीछे धकेल दिया तुम आराम से।
अबला समझकर ओवरटेक भी कर जाना ,मै चुप रहूँगा ,और मैंने देखा,

पर जब भी व्यवहारिकता का समझौता, पश्चात।
भूतल, आ जाए अपनी सफलता मे,
तो पीछे हट जाने का प्रश्न नहीं मानवता गाने लगी।
संग संग चलना आराम से मन्द मुस्कराने लगी।
पर नारी की गरिमा को मानव भी मुस्काया ।
खंडित मत करना। कक्ष से बाहर आया —–
इसलिए हे, प्यारी दोनों मुस्कानों के ।
अपनी इन कजरारी अन्तर को सोचकर ।
गोल गोल, सुन्दर सी आँखो पर मै रोया खूब रोया ।
पलकों का घूघँट  जी भर के रोया,
पल मे गिरा लेना।

उपयुक्त  पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।