क्या होगा?

क्या होगा? भाग-1

यूं ही अचानक बैठे-बैठे मन में एक प्रश्न उठ रहा है, क्या होगा?

प्रश्न जितना छोटा है, उतना ही बड़ा इसका आयाम है। इस प्रश्न में घर, समाज, देश, दुनिया सब समाहित हो जाता है।

किस्से की शुरुआत होती है ‘पाकीजा’ से।  एक साधारण परिवार की सुन्दर लड़की। और कभी-कभी तो लगता है कि ये जो दो शब्द हैं, ‘साधारण’ और ‘सुन्दर’ यही उसके जीवन के सबसे बुरे शब्द हैं, क्यूंकि आज की दुनिया में ‘साधारण’ परिवार की लड़की का ‘सुन्दर’ होना ही सबसे बड़ा अभिशाप है।

पाकीजा इस अभिशाप से भला कैसे बच सकती थी? इसी का कारण था कि पाकीजा जैसे ही अपने घर से बाहर निकलती, तमाम वहशी नज़रें उसका पीछा करना शुरू कर देतीं। फिर दूर-दूर तक, चेहरे बदलते, गर्दने बदलतीं मगर नज़रें नहीं बदलतीं.! ये नज़रें तब तक उसका पीछा करती, जब तक कि वो फिर से घूमकर वापस घर की चारदीवारी में आकर बंद ना हो जाती।

ये रोज का सिलसिला था। इस रोज-रोज के दौर से परेशां होकर एक दिन पाकीजा ने एक गंभीर कदम उठा ही लिया। उसने अपने ही हाथों तेजाब से अपना चेहरा जला लिया। उसने सोचा कि अब वो सुंदर नहीं रहेगी, तो नज़रें उसका पीछा भी नहीं करेंगी।

मगर अफ़सोस!!!  ऐसा कुछ नहीं हुआ। नज़रों ने उसका पीछा करना नहीं छोड़ा, क्यूंकि वो अभी भी एक लड़की है। हाँ, एक नयी बात जरूर हो गयी है कि अब कुछ हाथ भी सहानुभूति के नाम पर उसकी ओर बढ़ने लगे हैं।

अब मैं ये सोच रहा हूँ कि बचपन में नैतिक शिक्षा की किताब में पढ़ाई जाने वाली बड़ी-बड़ी नैतिकता की बातों का क्या होगा?

मनुष्य और मानवता जैसी अवधारणाओं का क्या होगा?

और सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि ‘पाकीजा’ का अगला कदम क्या होगा?

क्या वो खुद को मार लेगी?

और क्या उसके मर जाने से किस्सा ख़त्म हो जायेगा?

कभी नहीं!!!

क्यूंकि ये किस्सा किसी एक ‘पाकीजा’ का नहीं है!! ये किस्सा उन तमाम पाकीजाओं का है जिनके पाक दामन पर हर रोज गन्दी नज़रों के छींटे पड़ते रहते हैं और हर रोज एक छोटा सा प्रश्न खडा करते हैं- “क्या होगा??”

जारी…..

पढिये पार्ट-2 में…अगले दिन।

 

 

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