चिन्मय दत्ता, चाईबासा, झारखंड
मध्य प्रदेश स्थित भंवरा गांव में 23 जुलाई 1906 को पंडित सीताराम तिवारी के घर एक बालक का जन्म हुआ। बालक का मुखड़ा चन्द्रमा की तरह था इसीलिए माँ जगरानी देवी ने नाम रखा ‘चन्द्रशेखर’।
उन दिनों यह अंधविश्वास था कि किसी बच्चे को शेर का मांस खिला दो तो वह बड़ा होकर शेर जैसा ही दुस्साहसी होगा। बालक को शेर का मांस खिला दिया फिर बालक चन्द्रशेखर के रूप में अंधविश्वास की लॉटरी लग गई। अपने शिक्षक मनोहरलाल त्रिवेदी की गलती पर उनकी बांह पर छड़ी मारकर यह सिद्ध कर दिया कि मैं सिद्धांतों को कठोरता से निभाऊंगा।
एक बार 14 वर्षीय चन्द्रशेखर ने मैजिस्ट्रेट खेरपाट को अपना परिचय यूं दिया। मेरा नाम ‘आज़ाद’ पिता का नाम ‘स्वतंत्र’ काम-धंधा ‘देश को आज़ाद कराना’ और रहने का पता ‘जेल’। सजा में पन्द्रह बेंत लगे और पन्द्रह बार इनके गले से गूंजा ‘भारत माता की जय’। इसके बाद बेतों के लिए मिली सांत्वना राशि इन्होंने जेलर के मुंह पर दे मारी। प्रासंगिक है कि यह जीवन में केवल एक बार पुलिस के हाथ लगे थे।
27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद स्थित अल्फ्रेड पार्क में युद्ध के दौरान इन्होंने अपना माउजर अपनी कनपटी से लगाकर अंतिम गोली से अंतिम समय तक आज़ाद बने रहने का वर मांग लिया। जिस पेड़ के नीचे इन्होंने अंतिम युद्ध किए था, ब्रिटिश सरकार ने उसे काट दिया। अब उस स्थान पर आजाद की मूछों को ताव देने वाली प्रतिमा प्रतिष्ठित है। भारत सरकार ने 1988 में इनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए डाक टिकट जारी किया।
चन्द्रशेखर आज़ाद की जयंती पर पाठक मंच के कार्यक्रम इन्द्रधनुष की 788वीं कड़ी में मंच की सचिव शिवानी दत्ता की अध्यक्षता में यह जानकारी दी गई।
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