अंतर्राष्ट्रीय रेमन मैगसेस पुरस्कार के पहले प्राप्तकर्ता थे आचार्य विनोबा भावे

चिन्मय दत्ता।
आचार्य विनोबा भावे का जन्म महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के गांव गागोदा में नरहरी शम्भू राव के घर 11 सितम्बर 1985 को हुआ था। आचार्य, अपनी माँ रुक्मिणी बाई से प्रभावित थे। इन्हें माता-पिता दोनों के संस्कार मिले। मां से इनमें आध्यात्मिक चेतना की नींव पड़ी। इन्होंने रचनात्मक और आध्यात्मिक क्षेत्र में जो ख्याति अर्जित की उसके मूल में माँ की ही प्रेरणा थी।
बिनोवा भावे ने 1915 में हाईस्कूल की परीक्षा पास की। फ्रांसिसी साहित्य ने इनका परिचय पश्चिमी देशों में हो रही वैचारिक क्रांति से कराया वहीं,  संस्कृत के  ज्ञान ने इन्हें वेदों और उपनिषदों में गहराई से पैठने की योग्यता दी।
7 जून 1916 को महात्मा गांधी से इनकी पहली भेंट हुई। गांधी जी के आश्रम के लिए उन्होंने स्वयं को समर्पित कर दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यूनाइटेड किंगडम द्वारा भारत को जबरन युद्ध में झोंका जा रहा था, तब 17 अक्टूबर 1940 को इसके विरुद्ध सत्याग्रह शुरू किया गया इसमें गांधी जी ने बिनोवा भावे को प्रथम सत्याग्रही बनाया। यह देवनागरी को विश्व लिपि के रूप में देखना चाहते थे। इनके विचारों से प्रेरित होकर ‘नागरी लिपि संगम’ की स्थापना की गई जो देवनागरी के प्रसार के लिए कार्य करती है।

1923 में इन्होंने ‘महाराष्ट्र धर्म’ पत्रिका का संपादन किया जिससे देश में भक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई। 1951 में इन्होंने ‘भूदान आन्दोलन की शुरुआत की।  इन्होंने ‘सर्वोदय समाज’ की भी स्थापना की। आचार्य बिनोवा भावे, 1958 में सामुदायिक नेतृत्व के लिए ‘अंतर्राष्ट्रीय रेमन मैगसेस पुरस्कार’ के पहले प्राप्तकर्ता थे। इन्होंने 1959 में स्त्रियों के लिए आश्रम ‘ब्रह्म विद्या मंदिर’ स्थापित किया।।
15 नवम्बर 1982 को इनका प्राणांत हो गया। मरणोपरांत 1983 में इन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। झारखंड में इनके नाम पर एक विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है।
आचार्य विनोबा भावे की जयंती पर पाठक मंच के कार्यक्रम इन्द्रधनुष की 742वीं कड़ी में मंच की सचिव शिवानी दत्ता की अध्यक्षता में यह जानकारी दी गई।

 

 

 

 

 

 

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