मैं सोचता तो हूं कि गुस्सा ना करूं, लेकिन कंट्रोल नहीं हो पाता।
सोचा तो था कि उससे बात फिर शुरू कर दूंगा, लेकिन मन ही नहीं माना।
चाहता तो हूं कि ऐसा ना करूं, लेकिन मन ही नहीं मानता।
ऐसा, वैसा, ये, वो… न जाने क्या-क्या हम चाहते हैं, लेकिन नहीं कर पाते हैं, क्योंकि मन नहीं मानता है।
यह समस्या किसी एक की नहीं, सभी की है।
आपको भी कई बार ऐसा लगा होगा कि आपका मन आपकी बात नहीं मानता है।
क्या सच में ऐसा है?
और अगर ऐसा है, तो हमें क्या करना चाहिए?
आज हम इसी पर चर्चा करेंगे।
प्रश्न है कि क्या कभी-कभी सच में मन हमारी बात नहीं सुनता है?
क्या कभी ऐसा हो सकता है कि मन हमारी बात ना माने?
इसका एक शब्द में उत्तर है, ‘नहीं’।
ऐसा कभी नहीं होता। ऐसा कभी होता ही नहीं कि मन हमारी बात ना माने।
अब आप सोचेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है। ना जाने कितनी बार ऐसा हुआ है कि आपने जो चाहा, आपके मन ने नहीं माना।
है ना?
लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है।
इस संसार में अगर कोई आपकी हर बात सुनता और मानता है, तो वह है आपका मन।
आपकी बात को कोई और सुने या नहीं, लेकिन मन अवश्य सुनता और मानता है।
असल में जब आप कहते हैं कि मन नहीं मान रहा है, तब भी तो वह आपकी ही बात मान रहा होता है ना।
आप किसी से अपने गिले-शिकवे भुलाकर फिर बात करना चाहते हैं, लेकिन इस चाहत के साथ-साथ आप ही अपने मन को धीरे से बताते हैं कि यह बड़ा मुश्किल है। बस फिर,
मन ने आपकी बात मान ली। उसने यह मान लिया कि ऐसा होना मुश्किल है। और आप फिर बातचीत शुरू नहीं कर पाते हैं।
असल में मन हमारी बात हमेशा सुनता है, बस समझना है कि हम उसे सुनाना क्या चाहते हैं।
आपने मन बनाया कि सुबह जल्दी उठना है और व्यायाम करना है। लेकिन फिर कहीं चोर दरवाजे से अपने मन के पास एक और बात पहुंचा दी कि ऐसा हो नहीं पाएगा। आपने स्वयं ही अपने मन से कहा कि एक-दो दिन ही हो पाता है ऐसा।
बस, मन ने आपकी बात मान ली। तीसरा दिन आते-आते मन उस दिनचर्या से हट जाता है। और फिर आप आरोप लगाते हैं अपने मन पर। आप कहते हैं कि सोचता तो हूं कि सुबह जाग जाऊं, लेकिन मन ही नहीं होता उठने का।
असल में मन को न मानने के लिए भी तो आप ही कहते हैं।
बातें थोड़ा उलझ रही हैं ना।
इसे आसान कर देते हैं।
वास्तव में आपके और मन के बीच संबंध होता है आदेश देने वाले और आदेश का पालन करने वाले जैसा।
अब प्रश्न यह है कि आदेश देने वाला कौन है और आदेश मानने वाला कौन?
यह पूरी तरह से आप पर निर्भर करेगा।
आपको यह स्वीकार करना होगा कि मन को नियंत्रित करने की शक्ति आपमें है, आपको नियंत्रित करने की शक्ति मन में नहीं है।
मन की डोर आपके हाथ में है, आपकी डोर मन के हाथ में नहीं।
मन को आदेश देना सीखिए, क्योंकि वह सदैव आपकी बात सुनता है।
आपके आदेश को सुनना और उसका पालन करना ही तो मन का काम है।
समस्या हमारे आदेश देने में है।
हम मन से कुछ कहते तो हैं, लेकिन हमेशा चोर दरवाजे से उसे एक और निर्देश दे देते हैं।
यह कुछ ऐसा ही है कि जज ने फैसला सुनाया कि अमुक व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी, लेकिन साथ में प्रावधान कर दिया गया कि अधिकतम 14 साल। अब अनुपालन करने वाले जब उस फैसले पर आगे बढ़ेंगे, तो उन्हें उस अपराधी को अंतत: 14 साल में रिहा करना पड़ेगा। उस समय यदि जज कहे कि मैंने तो इसे आजीवन कारावास की सजा दी थी यानी पूरी उम्र जेल में, तब यह बाहर कैसे आ गया?
अरे भाई, उस आजीवन की अधिकतम सीमा भी तो लिख दी गई थी फैसले में।
यही हम करते हैं अपने मन के साथ। मन तो हमारी हर इच्छा को आदेश समझकर ही मानता है, लेकिन हम ही अपनी हर इच्छा में किंतु-परंतु लगाकर उसे आगे बढ़ने से रोक देते हैं।
वस्तुत: मन के स्वतंत्र विचरण जैसा कुछ नहीं है। उसे आप ही ले जाते हैं, जहां भी ले जाते हैं। मन इतना आज्ञाकारी होता है कि चोर दरवाजे से बहुत धीरे से कही गई बात को भी मानता है। वह हर मामले में आपके अंतिम निर्णय का सम्मान करता है। आप निर्णय करते हैं कि अमुक व्यक्ति को माफ कर देना है। मन तैयार हो जाता है, उसे माफ करने के लिए, लेकिन तभी आप चोर दरवाजे से एक पर्ची पहुंचा देते हैं, जिसमें लिखा होता है कि उस व्यक्ति ने गलती ही इतनी बड़ी की थी कि उसे माफ नहीं किया जा सकता है। मन तत्काल आपकी इस बात को भी मान लेता है।
और इस तरह आपके शब्दों में कहें तो आप चाहकर भी उस व्यक्ति को माफ करके उससे दोबारा बात नहीं कर पाते हैं,
क्योंकि आपका मन नहीं मानता।
अगली बार आप भी ऐसी किसी बात के लिए मन को दोष दे रहे हों, तो ध्यान रखिएगा कि असल में मन को आपने अंतिम आदेश दिया क्या था?
ॐ
(समाधान है… कॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिए… क्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)
अच्छी व्याख्या..!
इसे अंगीकार करें तो कल्याण ही कल्याण
Very informative can you also write something about the youth which are put up to choose between their passion or money grabbing jobs…
Is mann mai hi to apna jor nahi chalta hum sochte kiya hai is mann main aur hota kuch aur hi Hain isliye to kahte hai mann to bacha hain ji bohut acha likha hain Amit ji aapne