चिन्मय दत्ता, चाईबासा, झारखंड
भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रमुख पर्व रक्षा बंधन केवल रक्षा सूत्र बांधकर रक्षा का वचन ही नहीं देता बल्कि प्रेम, समर्पण, निष्ठा व संकल्प के माध्यम से हृदयों को बांधने का वचन देता है। रक्षा बंधन प्रागैतिहासिक काल में भाई-बहन तक ही सीमित नहीं था, संकट आने पर अपनों की रक्षा के लिए किसी को भी रक्षा सूत्र बांधा या भेजा जाता था। इस संबंध में न जाने कितनी ही घटनाएं जुड़ी हैं।
देवासुर संग्राम के समय गुरुदेव बृहस्पति के निर्देशानुसार इंद्राणी ने सभी देवताओं की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा थी। ब्रह्माणी के रूप में देवी लक्ष्मी ने राजा बलि की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधी था। त्रेता युग में सूर्पनखा ने रक्त से सनी साड़ी का एक छोर रावण की कलाई पर बांध कर कहा था–भैया जब-जब तुम अपनी कलाई की ओर देखोगे तुम्हें अपनी बहन का अपमान याद आएगा और मेरी नाक काटने वाले से तुम बदला ले सकोगे।
द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया था तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी तर्जनी में पट्टी बांध दी। वह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। बाद में श्रीकृष्ण ने इस उपकार का बदला चीर हरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया।
300 वर्ष ईसा पूर्व में सिकंदर भारत की सीमा लगने के उद्देश्य से पुरू के महाराजा से निराश हो गया था तब उनकी पत्नी ने पुरू के महाराजा को राखी भेजी। महाराजा ने रक्षा सूत्र की रक्षा के लिए सिकंदर को आगे के ओर बढ़ने का रास्ता दे दिया। चित्तौड़ की रानी कर्णावती ने संकट के समय बादशाह हुमायूं को राखी भिजवाई, तब हुमायूं ने लाव-लश्कर के साथ चित्तौड़ जाकर इस रक्षा सूत्र की रक्षा की।