प्यार और लव मैरिज पर हमने पिछले दो आलेखों में विमर्श किया। कई प्रश्नों के समाधान तक पहुंचे भी। हालांकि हमने प्रारंभ में ही कहा था कि यह विषय बहुत व्यापक है। इस पर तो ग्रंथ भी लिखे जा सकते हैं।
दो भागों में हुए विमर्श के बाद कई सुधी पाठकों के प्रश्न आए। एक साथी ने प्रश्न किया कि विवाह के बाद कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम लड़ते भी नहीं हैं, लेकिन संबंध जीवित भी नहीं लगता है। ऐसा लगता है कि कोई मृत सा संबंध ढो रहे हैं। सोचते हैं, तो ऐसा कोई वार भी नहीं दिखाई देता है, जिसने संबंध की हत्या कर दी हो, फिर भी संबंध में प्राण का अनुभव नहीं होता है। ऐसा क्यों होता है और इससे कैसे बचा जा सकता है?
नि:संदेह यह किसी एक व्यक्ति के जीवन में आने वाला प्रश्न नहीं है। बहुत से लोगों के जीवन में यह प्रश्न आता है। वैसे तो इस प्रश्न का आयाम विवाह ही नहीं, जीवन के किसी भी संबंध से जुड़ा हो सकता है।
परंतु हम विवाह और जीवनसाथी को केंद्र में रखते हुए ही आज इस प्रश्न के समाधान तक पहुंचेंगे। समाधान की वही राह जीवन के हर संबंध के मामले में कारगर होगी।
समाधान की राह पर बढ़ने से पहले एक सामान्य सा प्रश्न करते हैं। पहली दृष्टि में प्रश्न आपको विषयेतर भी लग सकता है, लेकिन उसका उत्तर अवश्य सोचिए।
प्रश्न यह है कि पाने वाले और देने वाले में आप श्रेष्ठ किसे मानते हैं?
बिना संकोच के हम सब इसका एक ही उत्तर पाते हैं, देने वाला श्रेष्ठ होता है।
है ना?
जीवन में देने का भाव ही श्रेष्ठता का बोध कराता है। हम देने के भाव में तभी होते हैं, जब भरे होते हैं। जो खाली है, वह देने के भाव में जा भी नहीं सकता है।
कल्पना कीजिए कि यदि सब पाने वाले की भूमिका में आ जाएं, तो क्या होगा?
अर्थात् हर ओर बस याचक हैं, लेकिन देने वाला कोई है ही नहीं।
इस स्थिति की परिणति क्या होगी?
एक समय ऐसा आएगा, जब सब बस याचना करते हुए ही मर जाएंगे।
अब एक और प्रश्न पर विचार करते हैं।
जीवनसाथी कौन होता है?
जीवनसाथी वह साथी है, जो पूरे जीवन, हर स्थिति और परिस्थिति में साथ देगा।
यहां भी आपके पास दो विकल्प होते हैं।
पहला, आप वह जीवनसाथी बनें, जो सामने वाले से हर स्थिति, परिस्थिति में साथ पाना चाहता है।
दूसरा, आप वह जीवनसाथी बनें, जो सामने वाले को हर स्थिति, परिस्थिति में साथ देना चाहता है।
आप इनमें से कौन सी भूमिका चुनना चाहेंगे। यदि पाने वाले और देने वाले की श्रेष्ठता के प्रश्न के समय दिए गए अपने उत्तर पर आप विचार करेंगे, तो निसंदेह यहां भी आपको दूसरी भूमिका ही चुननी चाहिए।
हम वह जीवनसाथी बनें, जो सामने वाले का हर स्थिति, परिस्थिति में साथ देना चाहता है।
परंतु,
व्यावहारिक तौर पर ऐसा होता नहीं है।
हम अपनी ही अपेक्षाओं के भार से इतने दबे होते हैं कि यह सोचने का समय ही नहीं मिलता है कि सामने हमारा जीवनसाथी क्या चाहता है।
हम दोनों ही बस पाने वाले की भूमिका में बने रहते हैं। यानी हम दोनों ही खाली होते हैं। हम में से कोई भी आगे बढ़कर उस जीवनसाथी की भूमिका में नहीं आना चाहता है, जो साथ देने के लिए खड़ा हो।
यदि समय रहते दोनों में से कोई साथ देने वाले की भूमिका में नहीं आता है, तो दोनों का खालीपन ही उस रिश्ते को भरने लगता है। जब किसी स्थान को खालीपन भर दे, उसका अर्थ होता है निर्वात का बन जाना। निर्वात एक ऐसी स्थिति होती है, जहां सांस लेने के लिए ऑक्सीजन भी नहीं होती है। धीरे-धीरे एक समय ऐसा आता है कि दोनों के बीच का संबंध उस निर्वात में दम तोड़ देता है।
सबसे बड़ी बात, निर्वात का आभास किसी को नहीं होता है। कुछ समय तक लगता है कि दम थोड़ा घुट रहा है। लेकिन जरा सी देर में ही ऑक्सीजन की कमी हमारे मस्तिष्क को शिथिल कर देती है। निर्वात में पड़े व्यक्ति को यह अनुभव ही नहीं होता है कि वह प्राण त्याग रहा है। पहले वह बेहोश होता है और फिर कब प्राण त्याद देता है, पता ही नहीं चलता।
इसी तरह, दो लोगों के बीच बने निर्वात में पल रहा संबंध भी पहले बेहोश होता है और फिर उसने कब दम तोड़ दिया, इसका पता भी नहीं चल पाता। एक समय अचानक ऐसा लगता है कि संबंध तो प्राण त्याग चुका है।
संबंध के मरने के बाद प्रारंभ होता है दोषारोपण का। और हम दोनों ही यह शिकायत करते रह जाते हैं कि हमें साथ देने वाला जीवनसाथी नहीं मिल पाया। कई बार उस मरे हुए संबंध के साथ ही जीवन बीत जाता है और कभी-कभी दोनों उस संबंध को जलाकर अलग हो जाते हैं। शिकायत वही बनी रह जाती है कि उससे वह साथ नहीं मिला, जिसकी चाहत थी।
क्या संबंध को मर जाने से बचा लेने का समाधान हमारी इसी समस्या में नहीं है?
है ना…
बस भूमिका बदल लीजिए।
जैसे ही कोई एक अपनी भूमिका को बदलकर देने वाले जीवनसाथी की भूमिका में आता है, सामने वाले का खालीपन खुद भरने लगता है। धीरे-धीरे संबंध पुष्पित-पल्लवित होने लगता है। जीवन सरस हो जाता है और दोनों को ही साथ देने वाला जीवनसाथी मिल जाता है।
इसे कुछ उदाहरणों से समझने का प्रयास करते हैं।
एक व्यक्ति के पास सूत कातने और कपड़ा बनाने की मशीन है, लेकिन न तो सूत हैं और न ही कपड़े हैं। दूसरा व्यक्ति है, जिसके पास सूत तो हैं, लेकिन न सूत कातने की मशीन है और न ही कपड़ा बनाने की। समस्या यह है कि दोनों ही एक-दूसरे से देने की अपेक्षा किए बैठे हैं। मशीन वाला चाहता है कि सामने वाला सूत उसे दे दे। सूत वाला चाहता है कि सामने वाला मशीन उसे दे दे। लेकिन, देने वाले की भूमिका में कोई नहीं आता। एक समय आता है, जब मशीनें जंग लगकर खराब हो जाती हैं और सूत गल जाते हैं। अंतत: दोनों ही कपड़े से वंचित रह जाते हैं।
कल्पना कीजिए कि दोनों में से एक भी यदि देने वाले की भूमिका में आ जाता, तो क्या होता?
यदि मशीन वाले को सूत मिलता, तो वह कपड़ा बना देता। और जब वह कपड़ा बनाने लगता, तो स्वत: ही दूसरे को कपड़ा देने लगता। और दोनों ही देने वाले की भूमिका में आ जाते।
इसके विपरीत होता, तब भी यही परिणाम आता। यदि सूत वाले को मशीन मिल जाती, तब भी वह कपड़ा बनाता। जब कपड़ा बनने लगता, तो वह भी सामने वाले को कपड़ा देने की स्थिति में आ जाता। ऐसा होने पर भी दोनों देने वाले की भूमिका में आ जाते।
बस जीवन और जीवनसाथी के साथ का संबंध भी ऐसा ही है। जैसे ही एक जीवनसाथी देने की भूमिका में आता है, दूसरे का कोश भी स्वत: भरने लगता है और वह भी देने की भूमिका में आ जाता है। और जब दोनों ही देने वाले जीवनसाथी की भूमिका में होते हैं, तब संबंध अपने उच्चतर स्तर पर होता है। उस समय कोई याचक नहीं होता है। दोनों एक-दूसरे की आवश्यकताओं को समझकर बढ़ने लगते हैं। अपने बीच कतई वह निर्वात मत बनने दीजिए, जिसमें संबंधों का दम घुट जाता है। आगे बढ़िए और अपने जीवनसाथी को वह दीजिए, जिसकी उसे अपेक्षा है। अंतत: आपको स्वत: ही वह मिल जाएगा, जो आप चाहते हैं।
ॐ