प्रेम, प्यार और लव मैरिज : भाग-1

प्रेम, प्यार और लव मैरिज : भाग-1 

अमित तिवारी

प्रेम… बहुत ही रूमानी सा शब्द। ऐसा शब्द कि हर व्यक्ति के पास इसकी अपनी अलग परिभाषा है। जब और जितने लोगों से पूछा जाए, इसका कुछ अलग ही स्वरूप सामने आता है।

परंतु,

क्या प्रेम वास्तव में ऐसा ही है? क्या वस्तु एवं परिस्थिति के अनुरूप रूप ले लेने वाला भाव प्रेम हो सकता है?

और बात जब लव मैरिज की हो, तो प्रश्न और भी उलझाने वाले हो जाते हैं। प्यार था, तो विवाह के कुछ ही समय में अलगाव का अनुभव क्यों होने लगा? प्यार था, तो सब पहले जैसा ही क्यों नहीं रह जाता है?

प्रेम, प्यार और लव मैरिज को लेकर ऐसे ही कई प्रश्न मन में रहते हैं। अनगिनत कहानियां और हर व्यक्ति का अलग अनुभव। जितनी कहानियां हम देखते-पढ़ते हैं, उतने ही प्रश्न बढ़ते जाते हैं।

आज हम इनसे जुड़े कुछ प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास करेंगे। वैसे तो यह विषय बहुत व्यापक है। इस पर पूरा ग्रंथ भी लिखा जा सकता है। तथापि कुछ मित्रों और पाठकों की ओर से अलग-अलग समय में पूछे गए कुछ प्रश्नों को इसमें समाहित किया जाएगा। इसके बाद भी यदि आपमें से किसी के भी मन में यह सबकुछ पढ़कर कुछ प्रश्न आएं, तो नि:संकोच पूछिए। अगले आलेखों में उन प्रश्नों को भी समाधान तक पहुंचाने का प्रयत्न रहेगा।

किशोरवय के अंतिम और युवावस्था के शुरुआती वर्षों में पहले प्रेम, प्यार और फिर लव मैरिज सबसे रूमानी शब्द लगने लगते हैं। एक पल तो ऐसा भी आ जाता है, जब लगता है कि प्यार नहीं तो फिर जीवन में कुछ भी नहीं।

प्रेम होता क्या है?

अब आते हैं आज के विषय पर। पहला प्रश्न यह है कि प्रेम होता क्या है?

इस विषय पर बहुत पहले एक बार लिखा था और आज फिर उसे दोहराता हूं।

प्रेम को समझने से पहले हमें यह समझना होगा कि प्रेम, प्यार, मोह (मोहब्बत) और अनुराग (इश्क)… ये चारों एक नहीं हैं।

यह अंतर ऐसा ही है कि आप मंदिर में जल चढ़ाते हैं, पानी नहीं। लेकिन बात नाली की हो तो उसमें पानी बहता है, जल नहीं।

आप किसी के चरण छूते हैं, लात नहीं। लेकिन यदि मारना हो तो लात मारी जाती है, चरण नहीं।

अर्थात् ऊपर से भले ही एक सा अर्थ लगता हो, लेकिन वस्तुत: ऐसा होता नहीं है। बहुत से समानार्थी शब्दों के पीछे का भाव भी बदल जाता है। वैसे भी यदि भाव न बदला होता तो कदाचित नया शब्द गढ़ने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती?

प्रेम, प्यार, मोह और अनुराग में भी ऐसा ही अंतर होता है।

यह अंतर भावनाओं का है।

प्रेम शक्ति चाहता है।

प्यार को अभिव्यक्ति के लिए काया चाहिए।

मोह (मोहब्बत) को माधुर्य चाहिए।

अनुराग (इश्क) को आकर्षण चाहिए।

थोड़ा सा उलझ रहे हैं ना? चलिए सुलझाते हैं।

वास्तव में प्रेम शक्ति चाहता है। यह शक्ति शरीर की नहीं, मन की शक्ति है। कोई व्यक्ति विश्व विजयी हो सकता है, प्रकांड विद्वान भी हो सकता है, लेकिन यदि मन की शक्ति नहीं है, तो उसमें प्रेम नहीं हो सकता है।

प्रेम के लिए निर्मोह की शक्ति चाहिए। निर्मोह के धरातल पर ही प्रेम के बीज अंकुरित हो सकते हैं। जैसे पुष्प अगाध प्रेम का प्रतीक है। उसमें बसी सुगंध ही उसका प्रेम है और वह प्रेम सबके लिए है। लेकिन वह प्रेम किसी के लिए सीमित नहीं है। पुष्प में प्रेम तो है, लेकिन उसे किसी से मोह नहीं है। ऐसा नहीं है कि वह किसी को सुगंध देगा और किसी को नहीं देगा। इसी तरह श्रीकृष्ण में प्रेम है। गोपियां, ग्वाले और गायें, जो भी उनके निकट पहुंच जाए, उसे ही उस प्रेम की अनुभूति होने लगती है। लेकिन श्रीकृष्ण को किसी से मोह नहीं हुआ। वह तो निर्मोही ही रहे। जहां से आगे बढ़े, वहां फिर नहीं गए। वृंदावन छूटा, तो छूट गया। मथुरा छूटी, तो छूट गई।

तो यह तो स्पष्ट है कि प्रेम एक अलौकिक अनुभूति है। यह इससे या उससे करने का भाव नहीं है।

अब मन में यह प्रश्न आता है कि आखिर हमारे मन में जो है, वह क्या है?

तो,

आपने शायद ध्यान दिया हो कि हमने विषय में भी और आगे भी प्रेम के साथ प्यार शब्द को भी लिखा है।

वस्तुत: हमारे मन में जो भाव है, वह प्यार, मोह और अनुराग में से कोई भाव होता है। प्रेम अनंत है, लेकिन इन तीनों के साथ जुड़े भावों की अपनी सीमाएं और शर्तें हैं।

प्यार को अभिव्यक्ति के लिए काया चाहिए। इसका अर्थ है कि आपका सामीप्य आपके प्यार को बढ़ाता है। बहुत लंबे समय तक यदि संवादहीनता हो जाए और सामीप्य न रहे, तो धीरे-धीरे प्यार को क्षीण हो जाना होता है।

मोह इससे थोड़ा सा अधिक है। यह मधुरता चाहता है। यह भावों से बना संबंध है। एक-दूसरे के भावों से हम बंध जाते हैं। सामीप्य न भी हो, तो भी सामीप्य का अनुभव होता है। सामीप्य की अकांक्षा रहती है। सामीप्य हो तो मधुरता और भी प्रकट स्वरूप में होती है तथा संबंध और भी प्रगाढ़ होते जाते हैं। इसकी भी सीमा है। यदि किसी एक के भावों में पहले जैसा माधुर्य न रहे, तो दूसरे का मोह भी क्षीण होने लगता है।

और रही बात अनुराग की, तो यह आकर्षण पर केंद्रित भाव है। कई बार जिस पहली नजर के प्यार की हम बात करते हैं, वह यही आकर्षण होता है। यह आकर्षण रूप का, स्वभाव का, ज्ञान का या किसी भी अन्य कारण से हो सकता है। आकर्षण बहुत प्रबल होता है। यह किसी शक्तिशाली चुंबक में लोहे के चिपक जाने जैसा भाव है। हालांकि इसकी भी सीमा है। एक चीज का आकर्षण किसी अन्य विकर्षण के कारण खत्म हो सकता है। हो सकता है कि हम किसी के रूप से आकर्षित हों, लेकिन उसके साथ समय बिताने पर उसका स्वभाव उतना आकर्षित न कर पाए। हो सकता है कि हम किसी के स्वभाव से आकर्षित हों, लेकिन समय के साथ उसके ज्ञान का स्तर हमारे लिए विकर्षण का कारण बन जाए।

यहां तक आते-आते हम यह तो समझ गए हैं कि वास्तव में वह भावना जो हमारे मन में किसी के प्रति होती है, वह प्रेम नहीं, अपितु प्यार, मोह या अनुराग में से कुछ होता है। समय के साथ यह भी संभव है कि किसी व्यक्ति के प्रति मन में ये सभी भाव एक साथ आने लगें। इसे संबंधों का प्रगाढ़ होना कहा जाता है।

इससे एक और बात ध्यान में आ रही है। थोड़ा सा विषयांतर है। वह यह कि शब्द प्राय: अपनी मार्यादा भी स्वयं ही तय कर लेते हैं।

जैसे,

प्रेम की जब बात होती है, तो हम स्वत: ही बोल पड़ते हैं, प्रेम ईश्वर है।

प्यार की बात हो तो, हम आसानी से कह देते हैं, प्यार दीवाना है।

मोह यानी मोहब्बत की बात हो तो आसानी से गाना गा लेते हैं, मोहब्बत है मिर्ची।

और इश्क तो कमीना होता ही है।

कभी प्रेम कमीना और इश्क ईश्वर है, बोलकर देखिए। आप स्वयं को ही संतुष्ट नहीं कर पाएंगे ऐसा बोलने के लिए।

खैर,

अपने विषय पर आते हैं।

प्रेम और प्यार को समझने के बाद बात आती है विवाह और लव मैरिज की।

यहां तक आते-आते आप प्रेम विवाह के स्थान पर लव मैरिज शब्द के प्रयोग के पीछे का निहितार्थ तो समझ ही गए होंगे। इसे लव मैरिज कहना ही उचित है। यहां लव का अर्थ अलग-अलग परिदृश्यों में प्यार, मोह या अनुराग जैसा कुछ हो सकता है।

विवाह क्या है?

सामान्यत: हमारे समाज की व्यवस्था में विवाह का अर्थ है आपके लिए एक उपयुक्त जीवनसाथी (वर या वधू) को चुनना और फिर जीवनभर उसके साथ रहना। यह चयन प्राय: परिवार के लोगों के माध्यम से होता है। परिचित, रिश्तेदार या अन्य माध्यमों से कुछ रिश्ते आते हैं। प्राथमिक चरण में कुछ समानता के पैमानों पर रिश्ते को परखा जाता है, जैसे शिक्षा के स्तर पर लड़का और लड़की, परिवारों के बीच की आपसी समझ आदि। फिर बात आगे बढ़ती है। एक-दूसरे के परिवारों के बारे में जानकारियां जुटाई जाती हैं। इतिहास-भूगोल जानने का प्रयास होता है, क्योंकि विवाह केवल दो लोगों का नहीं, दो परिवारों का संबंध माना जाता है। फिर विवाह होता है। हमें एक जीवनसाथी मिलता है और विवाह दो परिवारों के बीच का संबंध बन जाता है।

अब बात करते हैं लव मैरिज की।

असल में लव मैरिज क्या है? वैसे तो बहुत जरा सा अंतर है। सामान्यत: विवाह में आपके लिए जीवनसाथी के चयन में मुख्य भूमिका परिवार व परिचितों की रहती है, लेकिन लव मैरिज में यह चयन प्राथमिक स्तर से ही आपका स्वयं का होता है। हम किसी ऐसे व्यक्ति से विवाह करते हैं या करना चाहते हैं, जिसके प्रति हमारे मन में प्यार, मोह या अनुराग जैसी कोई भावना होती है। हालांकि यह जरा सा अंतर ही बहुत बड़े अंतर का कारण बन जाता है। यदि परिवारों ने सहजता से स्वीकार नहीं किया है, तो प्राय: वह विवाह दोनों परिवारों के बीच का संबंध नहीं बन पाता है। पहले से एक-दूसरे को जानने के कारण अपेक्षाओं का स्तर अलग होता है। साथ ही किसी प्रतिकूल परिस्थिति में परिवार व संबंधियों का साथ उतनी सहजता से नहीं मिल पाता है। यहीं से कुछ समस्याओं का जन्म भी होने लगता है।

इन समस्याओं को समझने से पहले लव मैरिज के पीछे के अपने मन भावों को समझते हैं।

जैसे, किसी को देखते हैं और एक आकर्षण का अनुभव होता है। आकर्षण रूप, गुण, व्यवहार, संपन्नता आदि किसी भी चीज का हो सकता है। समय के साथ कुछ कारण और भी बढ़ते जाते हैं और आकर्षण प्रगाढ़ होता जाता है। फिर हमें लगता है कि यदि उसी से विवाह हो जाए, तो कितना सुखद होगा।

कभी किसी के व्यवहार में ऐसी मधुरता होती है कि समय के साथ-साथ उसके प्रति हमारे मन में मोह जागने लगता है। हम भी उससे उतनी ही मधुरता के साथ व्यवहार करना चाहते हैं, करते हैं, जिससे यह मोह प्रगाढ़ होता जाता है। फिर एक समय आता है, जब हमें लगता है कि यदि हमारा विवाह हो जाए, तो जीवन में कितनी मधुरता होगी।

फिर बात आती है प्यार की। हम पहली नजर के आकर्षण में नहीं थे। व्यवहार का कोई ऐसा पक्ष भी नहीं था कि मोह होने लगे, लेकिन कुछ समय संयोगवश हम साथ रहते हैं और यह सामीप्य धीरे-धीरे अच्छा लगने लगता है। फिर उसकी बातें आकर्षित भी करने लगती हैं और उसका व्यवहार मधुर भी लगने लगता है। यह है प्यार की स्थिति। जब किसी से प्यार हो जाता है, तब भी एक पल आता है कि जब मन में यही विचार आता है कि यदि हमारा विवाह हो जाए, तो इससे अच्छा कुछ हो ही नहीं सकता।

इन तीनों ही स्थितियों में, यदि भावना दोतरफा होती है, तो परिवार को मनाकर या परिवार से लड़कर और दूर जाकर, किसी भी तरह हम बस यह चाहते हैं कि हम विवाह कर लें।

अब अगला प्रश्न आता है इस विवाह के बाद।

अनुराग, मोह या प्यार की प्रगाढ़ता के बाद हुआ विवाह कई मामलों में कुछ समय पश्चात् ही एक गलत निर्णय जैसा क्यों लगने लगता है?

कुछ ही समय पहले खूब प्रयासों के साथ लव मैरिज करने वाले दोनों लोग, अचानक उस स्थिति में कैसे पहुंच जाते हैं कि बस अलग हो जाना चाहते हैं?

इस विषय पर हम विमर्श करेंगे अगले आलेख में।

तब तक यदि प्रेम, प्यार या अन्य भावों को लेकर मन में कोई प्रश्न है, तो आप पूछ सकते हैं।

(समाधान है… कॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिए… क्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *