क्या आप भी गुस्सा होते हैं तो बात करना बंद कर देते हैं?

अमित तिवारी

हम अक्सर कहते-सुनते हैं कि आजकल फलाने से बातचीत बंद है। मैंने तो उनसे बोलना ही छोड़ दिया है। अभी मेरा बिलकुल मन नहीं है कि उनसे बात करूं, जब मन शांत होगा तब बात कर लूंगा… आदि, आदि।

यदि आप भी उनमें से हैं, जो गुस्सा होते ही बातचीत बंद कर देते हैं, तो फिर आज का यह विषय आपके लिए ही है।

वैसे तो गुस्सा बहुत व्यापक विषय है। कोई भी, कभी भी और कहीं भी किसी से गुस्सा हो सकता है।

लेकिन इस विषय को देखकर आप एक बात तो समझ गए होंगे, हम अपने करीब रिश्तों से गुस्सा होने पर चर्चा कर रहे हैं। क्योंकि बातचीत तो उनसे ही बंद की जा सकती है, जिनसे कभी खूब बातचीत होती हो। ऐसा अक्सर होता है कि कोई ऐसा रिश्ता, जो हमें प्रिय होता है और जिससे हम खूब बात भी करते हैं, अचानक कुछ ऐसा होता है कि हम उससे बात करना बंद कर देते हैं।

आज हम इस पर बात नहीं करेंगे कि गुस्सा क्यों आता है। यह विषय बस हमारे इस स्वभाव पर केंद्रित है कि क्या गुस्से में बात बंद कर देना सही कदम है?

वैसे तो इसका उत्तर एक ही शब्द का है, ‘नहीं’।

गुस्से में बात बंद कर देना कतई सही कदम नहीं हो सकता है।

अब आप कहेंगे कि क्यों सही कदम नहीं है? बात नहीं करने से मन शांत होता है। धीरे-धीरे सब सामान्य हो जाता है। फिर चीजें पहले की तरह चलने लगती हैं।

ऐसा बिलकुल नहीं है।

हम इस पर क्रमिक रूप से आगे बढ़ते हैं। एक करीबी व्यक्ति है, जिससे कुछ कहासुनी हो गई।

निसंदेह कहासुनी हुई तो आपका मन अशांत हो गया। कुछ तेज आवाज में उन्होंने कुछ कहा और कुछ तेज आवाज में आपने भी कुछ कह दिया।

मन दोनों का पूरी तरह से अशांत है। यह अशांति इतनी बढ़ जाती है कि आप उस व्यक्ति से बात न करने का निर्णय कर लेते हैं। कब तक बात नहीं करेंगे? जब तक मन शांत नहीं हो जाता।

लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है। बात बंद करने से मन शांत नहीं होता है। बल्कि दोनों का मन और अशांत हो जाता है। दोनों में से कोई बोल नहीं रहा है, इससे होता यह है कि हम उस बात को लेकर दूसरे के हिस्से के तर्क भी अपने ही मन में गढ़ने लगते हैं। जैसे, वह ऐसा सोच रहा होगा, उसने ऐसा करने का मन बनाया होगा, वह ऐसा करना चाहता होगा, आदि आदि। हम पूरे घटनाक्रम के इर्द-गिर्द एक पूरी कहानी बुन लेते हैं, जो उस वक्त हमारी मनोदशा से जुड़ी होती है। ठीक ऐसा ही सामने वाला कर रहा होता है। उसके पास भी उस पूरे घटनाक्रम को लेकर एक पूरी कहानी होती है, जिसमें उसने आपके हिस्से के डायलॉग भी खुद ही लिख लिए हैं। समय के बीतने के साथ हो सकता है कि ऊपर से वह घटनाक्रम थोड़ा सा विस्मृत हो जाए, लेकिन असल में वह आपके या सामने वाले के मन से कभी मिटता नहीं है। आप जिसे समझते हैं कि समय के साथ मन शांत हो गया और संबंध सामान्य हो गया, वैसा होता नहीं है।

बातचीत बंद होने के बाद अपनी-अपनी गढ़ी हुई कहानियों के कारण आप दोनों के मन थोड़े मलिन हो जाते हैं। समय के साथ वह मलिनता नीचे बैठ तो जाती है, लेकिन मन साफ नहीं होता है। फिर अगली बार जब कभी भी कोई कंकड़ उस कथित रूप से शांत मन पर पड़ता है, वह मलिनता ऊपर आ जाती है। बिलकुल उसी तरह, जैसे किसी पानी में पड़ी गंदगी भले ही नीचे बैठी हो, लेकिन जैसे ही पानी को हिलाएंगे, वह गंदगी स्वयं ऊपर आ जाएगी।

तो अगली बार जब आप गुस्सा होंगे, तब आपके मन में पहले से ही मलिनता बसी होगी और कुछ मलिनता इस बार बातचीत बंद करके आप फिर पैदा कर लेंगे मन में। इस बार उस मलिनता को शांत होकर नीचे बैठ जाने में और ज्यादा समय लगेगा। जैसे ज्यादा गंदगी हो तो उसके नीचे बैठने और पानी के साफ दिखने में ज्यादा समय लग जाता है।

लेकिन आखिर यह क्रम चलेगा कब तक?

एक समय ऐसा आएगा कि मन एक-दूसरे के प्रति इतना कलुषित हो चुके होंगे और मलिनता इतनी ज्यादा भर चुकी होगी कि अंतत: आपको जीवनभर के लिए उस संबंध को त्यागना पड़ेगा। इसके बाद भी मन शांत नहीं होगा। असल में मन कभी शांत होगा ही नहीं। एक अच्छा एवं सुंदर रिश्ता इस तरह से खत्म होकर भी खत्म नहीं हो पाता है। फिर कभी हम स्वयं को कोसते हैं, तो कभी सामने वाले को।

अब आप सोचेंगे कि करना क्या चाहिए? गुस्सा आने पर न बोलने का मन होना तो स्वाभाविक है। तब फिर करें क्या?

समाधान बिलकुल सरल है।

जब हम यह जान चुके हैं कि बातचीत बंद करना ही समस्या है, तो जाहिर है कि बातचीत को जारी रखना उसका समाधान है। कभी भी, किसी भी बात पर गुस्सा हों तो उस पर बात करके पूरे विषय को स्पष्ट कर लें। सामने वाले के हिस्से के डायलॉग खुद ही अपने मन से न बनाएं। उसे अपनी बात कहने का अवसर दें। उसकी परिस्थिति में स्वयं को रखने का प्रयास करें और समझें। हो सकता है कि उसके स्थान पर स्वयं को रखने पर आपको यह अनुभव हो कि उसका किया कर्म इतना भी गलत नहीं है, जितना आप सोच रहे थे। यह स्पष्टता बात करने से ही आएगी। यह मत सोचिए कि मन शांत होगा, तब बात करेंगे। बल्कि यह समझिए कि बात करेंगे, तभी मन शांत होगा। और जब बात करके मन शांत होता है, तो बिलकुल फिल्टर किए हुए पानी की तरह होता है। उसमें कोई अतिरिक्त मलिनता नहीं होती है। इससे बड़ा लाभ यह भी होता है कि अगली बार वैसा कुछ होने पर आप पहले से ही एक सीमा तक शांत होते हैं। थोड़ी सी बात होते ही स्थितियां आपको फिर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती हैं और मन फिर शांत हो जाता है।

एक और बात,

गुस्सा होने पर किसी से बातचीत बंद करना, कई बार आपके संस्कार का हिस्सा बनने लगता है। और मन के अशांत रहने के उस दौर में आपसे जुड़ा हर व्यक्ति उस नकारात्मकता का अनुभव कर रहा होता है। आपका परिवार अकारण ही और अनजाने में ही उससे प्रभावित हो रहा होता है, जिसका आप अनुमान भी नहीं लगा पाते हैं। वास्तव में जब तक आप उस व्यक्ति से बात नहीं करते हैं, तब तक उस घटनाक्रम की नकारात्मकता आपको घेरे रहती है और नकारात्मकता का प्रसार आपके चारों तरफ होता रहता है। आप नहीं भी चाहेंगे, तब भी आपसे जुड़ा हर व्यक्ति उससे प्रभावित होता रहेगा। यदि यह स्वभाव आपका संस्कार बनता गया, तो आखिर किस किस से बात बंद करते रहेंगे आप? और जितने ज्यादा संबंधों में आप ऐसा करते जाएंगे, मन उतना ही मलिन होता जाएगा, आत्मशक्ति उतनी ही कमजोर होती जाएगी। अंतत: आप पूरा जीवन एक अकारण के दुष्चक्र में फंसा लेंगे, जबकि एक बातचीत से उस दुष्चक्र को तोड़ा जा सकता था।

यही नहीं, आपके इस संस्कार का प्रभाव बच्चों पर भी पड़ेगा। वह भी गुस्से के बदले ऐसी ही प्रतिक्रिया देना सीखेगा। उसे भी लगेगा कि गुस्से से बाहर निकलने का सबसे आसान रास्ता है बात नहीं करना। हो सकता है कि आपसे किसी बात पर गुस्सा होकर बच्चा आपसे ही बात करना बंद कर दे।

गुस्से में बातचीत न करने की आपकी आदत जीवन पर इतने प्रकार से दुष्प्रभाव डाल सकती है। न जाने कितने रिश्तों को आप दांव पर लगा देते हैं।

तो फिर आज ही विचार कीजिए कि कितने रिश्ते आपने बस बात न करने के कारण खो दिए हैं। जहां तक संभव हो, उन रिश्तों को फिर से सहेज लीजिए। विश्वास कीजिए, इससे आपकी आत्मशक्ति इतनी दृढ़ होगी, जिसकी आपने कल्पना भी नहीं की है। दृढ़ आत्मशक्ति आपको सकारात्मकता से भरती है और जीवन सुगम बनाती है। और यही नहीं, सहज होकर लोगों की बातों और उनके कर्मों पर दी गई आपकी प्रतिक्रिया उनके साथ आपके कर्मानुबंध को भी परिणाम तक पहुंचाती है। इससे आप कर्म, कर्मफल और प्रारब्ध के कई चक्र को भी सहज तरीके से पार कर पाने में सक्षम होते हैं।

आत्मशक्ति और कर्मानुबंध पर विस्तृत चर्चा फिर कभी करेंगे।

और एक बात,

गुस्सा क्यों आता है? इस पर भी व्यापक विमर्श की संभावना है।

(समाधान है… कॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिए… क्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)

 

 

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