हम एक-दूसरे को बहुत मानते थे, लेकिन अब बात भी नहीं होती

अमित तिवारी

हम एक-दूसरे को बहुत मानते थे, लेकिन अब बात भी नहीं होती। किसी संस्मरण का भाग लगने वाली यह पंक्ति हर किसी के जीवन से जुड़ी है। कदाचित ही कोई ऐसा होगा, जिसका कोई अनुभव इस पंक्ति पर आकर न थमता हो।

इस पंक्ति के साथ नेपथ्य में सदैव एक प्रश्न भी रहता है कि ऐसा हुआ क्यों?

आज हम इसी के समाधान तक पहुंचने का प्रयास करेंगे।

जीवन में एक कुछ लोग होते हैंजो हमें बहुत प्रिय होते हैं या जिन्हें हम बहुत प्रिय होते हैं। हम दोनों एक-दूसरे को बहुत मानते हैं। सब कुछ कहना-बतानाएक-दूसरे के दुख-सुख को साझा करना, जीवन में कोई भी निर्णय लेते समय एक-दूसरे के विचारों को जाननाकुछ भी पूछ लेना और कुछ भी बता देना हमारे जीवन की सहज प्रक्रिया बन जाती है। एक-दूसरे के पूरक जैसे बन जाते हैं दोनों। दोनों का जीवन अपनी-अपनी गति से बढ़ता रहता है और हमारे संबंध की आपसी सहजता भी वैसी ही बनी रहती है।

लेकिन अचानक ही कुछ ऐसा होता है कि हमारा वही मित्र हमसे बात करना छोड़ देता है। हमें देखना नहीं चाहता है। हम प्रयास भी करते हैं, तब भी कोई उत्तर नहीं मिल पाता है। अंतत: हम मन को यह समझाते हैं कि संभवत: उसके जीवन में कहीं कुछ ऐसा हुआ होगा, जिसने उसे अपना व्यवहार बदलने को विवश कर दिया।

ऐसा ही होता है ना?

बिलकुल ऐसा ही…

हम मन में अनगिनत प्रश्न लिए खड़े रह जाते हैं, इस प्रतीक्षा में कोई उत्तर मिलेगा। लेकिन उत्तर नहीं मिलता। यहां तक कि सामने वाला हमारे प्रश्नों को ही नहीं सुनना चाहता है। हम उस कारण को भरसक खोजने का प्रयास करते हैं, लेकिन नहीं खोज पाते हैं। एक पड़ाव पर आकर हमारे प्रयास की सीमा भी पार हो जाती है।

हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि अब वह मित्रता नहीं रही।

लेकिन प्रश्न वहीं बना रहता है कि ऐसा हुआ क्यों?

इस प्रश्न के समाधान तक पहुंचने से पूर्व हमें यह समझना होगा कि एक अच्छा संबंध हम कहते किसे हैं।

वह संबंध जिसमें हमें कहने-बोलने में कुछ सोचना न पड़े। जहां हमें यह विश्वास हो कि हम जो कहेंगे, सामने उसे समझने वाला एक व्यक्ति है। हमें अपेक्षा होती है कि वह मित्र हर जटिल परिस्थिति में हमारा संबल होगा।

बस अच्छे संबंध की इसी परिभाषा में से समाधान की राह भी निकलेगी।

इस परिभाषा पर ध्यान दें तो अच्छे संबंध की इसी परिभाषा में दो शब्द दिखाई देते हैं विश्वास और अपेक्षा।

वस्तुत: यही दो शब्द किसी संबंध को मजबूत बनाते हैं और इन्हीं दोनों में संबंध को खत्म करने की शक्ति भी होती है।

अच्छी मित्रता में कई बार हम यह भूल जाते हैं कि सामने जो व्यक्ति है, वह भी अंतत: एक व्यक्ति ही है। वैसा ही भावनाओं से भरा हुआ व्यक्ति, जैसे हम स्वयं हैं।

जरा सोचिए…

क्या आप हमेशा हर बात को उसी तरह से समझ सकते हैं, जैसा सामने वाला चाह रहा हो?

क्या आप हर परिस्थिति को समझने का विश्वास स्वयं पर रख सकते हैं?

क्या आप स्वयं अपनी हर अपेक्षा पर खरे उतर सकते हैं?

निसंदेह, इनमें से हर प्रश्न का उत्तर ‘नहीं’ है। और इस ‘नहीं’ में कोई बुराई नहीं है। यह मानव स्वभाव है। हर व्यक्ति अपने ही स्थान और अपनी ही भूमिका में जी रहा होता है और यह आवश्यक नहीं है कि आप जीवन में जहां खड़े हैं, वहां से हर परस्थिति को समझ सकें।

अब प्रश्न यह आता है कि जो विश्वास एवं अपेक्षा हम स्वयं के प्रति नहीं कर सकते हैं, किसी अन्य के प्रति कैसे कर सकते हैं?

वास्तव में यही अपेक्षा किसी संबंध के अंत का कारण बन जाती है।

जब हम किसी को बहुत मानने लगते हैं, तब उस पर विश्वास भी अथाह होता है। विश्वास होता है कि कभी भी कुछ भी कहेंगे, वह समझेगा, समझाएगा। विश्वास होता है कि परिस्थितियां कैसी भी हों, उससे संपर्क नहीं टूट सकता है। उससे अपेक्षा रहती है कि उसे हमारा जन्मदिन याद रहे, उसे हमारा हर दुख बिना कहे समझ आ जाए… और भी ऐसी ही कई अपेक्षाएं।

ऐसी ही बहुत सी अपेक्षाएं और हम पर ढेर सारा विश्वास उसे भी रहता है।

हम दोनों इस विश्वास को बनाए रखने और अपेक्षाओं पर खरा उतरने का पूरा प्रयास भी करते हैं।

और संबंध अच्छा चलता रहता है।

समय के साथ अपेक्षाएं बढ़ती जाती हैं।

लेकिन

हम दोनों ही भूल जाते हैं कि दोनों का एक अलग जीवन भी है। वहां भी समय के साथ परिस्थितियां बदल रही होती हैं। जो हमारे प्रति जिम्मेदारी निभाता है, क्या वह जीवन के अन्य संबंधों के प्रति जिम्मेदार नहीं होगा? और क्या हमारे जीवन में समय के साथ परिस्थितियों में ऐसे बदलाव नहीं आए हैं कि हमारे लिए पहले जैसा रह पाना थोड़ा मुश्किल हो गया है? आखिर ऐसे ही बदलाव उसके जीवन में भी तो संभव हैं। लेकिन दोनों में से कोई भी समय के साथ होने वाले इस बदलाव को नहीं समझ पाता है।

और बस,

जब और जहां एक-दूसरे को और एक-दूसरे की परिस्थिति को समझने की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती हैवहीं हम नहीं समझ पाते हैं।

बस सामने वाला हमारी अपेक्षा पर जरा सा चूकता है और हम वास्तविक परिस्थिति को समझने का प्रयास करने के बजाय अपने मन से कुछ कारण बनाने लगते हैं। हम स्वयं ही निष्कर्ष निकालना प्रारंभ कर देते हैं कि वह अब हमारी इस मित्रता को पहले जितनी गंभीरता नहीं देताउसमें इस मित्रता को लेकर पहले जितना लगाव नहीं रहायह संबंध उसकी प्राथमिकता में नहीं रहा… और ऐसा ही बहुत कुछ…

ठीक ऐसा ही सामने वाला हमारे लिए भी सोच सकता है।

यही सोच अविश्वास को जन्म देती है।

अपेक्षा और अविश्वास के इस दुष्चक्र से हम बाहर निकलने की सोच ही रहे होते हैं कि हमारा अहंकार भी सामने आने लगता है।

जैसे, मैं ही क्यों प्रयास करूं… उसे भी तो बात करनी चाहिए… हमेशा पहल मुझे क्यों करनी चाहिए…

और बस…

वह मित्रता, जिसमें पहले मैं, पहले मैं वाला भाव था, उसमें पहले मैं ही क्यों… वाला भाव आने लगता है।

जिस दिन से अपेक्षा, अविश्वास और अहंकार की यह तिकड़ी हमारे मन में जगह बनाती है, बस वहीं से संबंध के अंत की शुरुआत हो जाती है।

संबंध कितना भी मजबूत क्यों न होअपेक्षाअविश्वास और अहंकार मिलकर उसे खत्म कर सकते हैं।

अपेक्षाअविश्वास और अहंकार उस नमी की तरह हैंजिसके लगातार बने रहने से मजबूत से मजूबत लोहा भी जंग लगकर नष्ट हो सकता है।

इस पूरी बात को सार रूप में एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं।

आप जब बचपन में पढ़ना शुरू करते हैं, तब आपको वर्णमाला (अ से अनार, क से कलम और एबीसीडी आदि) पढ़ाई और याद कराई जाती है। उस दौर में उस वर्णमाला से हमारी मित्रता हो जाती है। हर पल हम उसी वर्णमाला को याद करते हैं। हर शब्द पढ़ने में वहीं वर्णमाला हमारा साथ देती है। हमें विश्वास होता है कि वर्णमाला याद हो जाएगी तो हर शब्द पढ़ना संभव हो जाएगा। वह वर्णमाला हमारी अपेक्षा पर खरी उतरती है। वर्णमाला भी हमसे अपेक्षा करती है कि हम रोज उसे याद करें और हम करते भी हैं।

फिर समय आगे बढ़ता है। आपके जीवन में बड़े-बड़े वाक्य और पाठ आने लगते हैं। आपको प्रश्न-उत्तर का सामना करना पड़ता है। क्या उस समय आप कभी वर्णमाला को समय देते हैं? क्या आप पहले की ही तरह वर्णमाला को बार-बार देखते और पढ़ते हैं?

धीरे-धीरे न तो आपको कोई शब्द पढ़ने के लिए वर्णमाला को याद करने की आवश्यकता रह जाती है और न ही आप कभी वर्णमाला को बैठकर पढ़ते हैं।

उस समय क्या वास्तव में वर्णमाला से आपकी मित्रता टूट जाती है?

क्या सच में आपने और वर्णमाला ने एक-दूसरे का साथ छोड़ दिया होता है?

कदापि नहीं।

बल्कि हर पाठ, प्रश्न, उत्तर, वाक्य में आपके अवचेतन में बस गई वह वर्णमाला ही आपका साथ देती है और आप हमेशा उसे याद रखते हैं।

ध्यान रखिए, हमारा मित्र भी वही वर्णमाला है। समय के साथ अपेक्षाओं का स्वरूप बदल सकता है। संभव है कि आप पहले की तरह बैठकर वर्णमाला को न पढ़ें, लेकिन सत्य यही है कि उसका संबल ही आपको हर समस्या से पार पाने में सहायता करता है। आप उसे बैठकर पहले की तरह नहीं पढ़ पा रहे हैं, इससे उस वर्णमाला को कभी नाराज नहीं होना चाहिए। और यदि वह नाराज हो, तो आपको बताना चाहिए कि देखो मित्र, मेरे हर वाक्य में तुम ही तो हो।

और हां,

यह भी हो सकता है कि आप भी अपने किसी मित्र की वर्णमाला हों। तो यदि वह मित्र पहले की तरह आपको पढ़ने का समय नहीं निकाल रहा है, तो उससे नाराज मत होइए। उसका संबल बने रहिए। और विश्वास रखिए कि वह आपको भूल नहीं सकता, क्योंकि उसके हर शब्द में आप ही हैं।

तो आज एक बार फिर उन संबंधों को याद कीजिए, जो अविश्वास, अपेक्षा या अहंकार के दुष्चक्र का शिकार हो गए हैं।

और

उस संबंध को पुनर्जीवित कर लीजिए…

वैसे भी रहीम ने कहा है, रूठे सुजन मनाइएजो रूठे सौ बार। रहिमन फिर फिर पोइएटूटे मुक्ताहार।।

कोई प्रियजन सौ बार भी रूठ जाए तो उसे उसी तरह से मना लेना चाहिएजैसे मोतियों की माला कितनी भी बार टूटेउसे धागे में पिरो लिया जाता है।

चलते-चलते एक और बात…

संवाद किसी संबंध की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

नाराज होने पर किसी से बात बंद कर देना सही नहीं है…

इससे संबंधों पर क्या दुष्प्रभाव पड़ सकता है और साथ ही इससे परिवार पर कैसे प्रभाव पड़ सकता है… इस विषय पर बात करेंगे अगले चरण में…

(समाधान है… कॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिए… क्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)

 

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