चिन्मय दत्ता, चाईबासा, झारखंड
पहले मलयालम ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मलयालम भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार गोविन्द शंकर कुरुप का जन्म 5 जून 1901 को केरल के नायत्तोट में हुआ था।
इनके मामा का नाम गोविन्द कुरुप था। पारिवारिक वंश परंपरा मात्रृ कुल से चलने की प्रथा के कारण इनका कुल नाम के साथ कुरुप नाम जुड़ा।
बचपन में ही इनके पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद इनका दायित्व मामा गोविन्द कुरुप ने निभाया। माँ लक्ष्मीकुट्टी अम्मा की छत्रछाया में पलते हुए इनकी प्राथमिक शिक्षा नायत्तोट के प्राथमिक विद्यालय से हुई।
इन्होंने कोचीन राज्य की ‘पंडित’ परीक्षा पास कर अध्यापन की योग्यता प्राप्त की और 1937 से 1956 तक एर्नाकुलम के महाराजा कॉलेज में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत रहे।
इन्होंने बांग्ला और मलयालम साहित्य का अध्ययन किया। इनकी पहली कविता मासिक पत्रिका ‘आत्मपोषिणी’ में प्रकाशित हुई। 1963 में इनके द्वारा रचित कविता संग्रह ‘विश्वदर्शनम्’ के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
1965 में इनकी प्रसिद्ध रचना ‘ओटक्कुषल’ अर्थात बांसुरी भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाले पहले मलयालम साहित्य के सर्वोच्च ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुई।
इसके बाद 1967 में सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार इनके नाम हुआ फिर साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार ने इन्हें 1968 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। इसी वर्ष इन्हें राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया गया जिस पर ये 1968 से 1972 तक बने रहे।
इनकी 40 से अधिक मौलिक और अनूदित कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। 2 फरवरी 1978 को गोविंद शंकर कुरूप ने इस दुनिया से विदा ले लिया।
आज 5 जून को गोविन्द शंकर कुरुप की जयंती पर पाठक मंच के कार्यक्रम इन्द्रधनुष की 728वीं कड़ी में मंच की सचिव शिवानी दत्ता की अध्यक्षता में यह जानकारी दी गई।