कर्म और भाग्य का संबंध क्या है? यह एक ऐसा प्रश्न है, जो हर व्यक्ति के मन में आता है। अनगिनत बार मन इस संबंध को समझने के लिए अपने तर्क देता है।
हालांकि यह भी सत्य है कि बहुधा मन के तर्क स्वयं को संतुष्ट करने में सक्षम नहीं हो पाते और यह गुत्थी अनुत्तरित ही बनी रह जाती है।
आज इस स्तंभ में हम इसी प्रश्न को यथासंभव समाधान तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।
सदैव की भांति आज भी प्रश्न में से ही समाधान की राह निकल रही है।
प्रश्न में हमने लिखा है ‘कर्म और भाग्य…’
हमने इसे ‘भाग्य और कर्म…’ नहीं कहा।
वस्तुत: इस पूरे विषय को समझने की पहली कड़ी यही है।
कर्म और भाग्य के संबंध को समझने के लिए हमें पहले कर्म को जानना व समझना होगा।
विषय को एकदम आरंभ से ही प्रारंभ करते हैं। इसके लिए छोटे-छोटे प्रश्नों से होते हुए आगे बढेंगे।
पहला प्रश्न है कि कर्म होता क्या है?
इस जीवन में आप अपनी समस्त इंद्रियों से जो कुछ करते हैं, वह कर्म है। इसमें कर्म इंद्रियां और ज्ञान इंद्रियां दोनों समाहित हैं। उदाहरण के तौर पर- आंख से देखना, कान से सुनना, मन से सोचना, हाथों से कोई कार्य करना, वाणी से बोलना, पैरों से चलना आदि आदि।
इससे एक बात समझ सकते हैं कि मात्र स्थूल शरीर से कोई भौतिक क्रिया करना ही कर्म नहीं है। आपका सोचना, देखना, बोलना सब कर्म के ही स्वरूप हैं। यही कारण है कि शास्त्रों ने बुरा न देखने और बुरा न सुनने को भी प्रेरित किया है।
अब प्रश्न आता है कि कर्म के प्रकार कितने हैं?
वस्तुत: कर्म का वर्गीकरण अलग-अलग तरह से किया जाता है।
पहला वर्गीकरण है कर्म को करने के माध्यम के आधार पर-
– कायिक : जो कर्म शरीर के माध्यम से भौतिक रूप किया गया हो। जैसे खाना-पीना, किसी की सहायता करना या किसी से लड़ाई करना आदि आदि।
– वाचिक : जहां कर्म की कोई भौतिक व्युत्पत्ति नहीं है। मात्र वाणी का प्रयोग किया गया। जैसे किसी की प्रशंसा करना या किसी को गाली देना आदि आदि।
– मानसिक : जहां न कुछ किया हो, न बोला हो, केवल मनन किया गया हो। जैसे किसी के हित या अहित की कामना करना आदि आदि।
इसके अतिरिक्त कर्म का वर्गीकरण भाव के आधार पर किया जाता है। गीता में इसकी व्याख्या की गई है। (अध्याय 18, श्लोक 23-25)
– सात्विक कर्म : नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्। अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।
जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो, वह सात्विक कहा जाता है ।।
– राजसी कर्म : यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः। क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।
जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है ।।
– तामसिक कर्म : अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्। मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचार कर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है ।।
गीता व अन्यान्य शास्त्रों का सार लेते हुए कर्म को सरल तरीके से समझाने के लिए कर्म के पांच प्रकार बताए गए हैं-
- नित्यकर्म – सामान्य जीवनयापन के लिए प्रतिदिन किए जाने वाले कार्य। जैसे सोना, जागना, खाना-पीना, नहाना आदि आदि।
- नैमित्यकर्म – नियम के अनुरूप किए जाने वाले कार्य। जैसे विद्यालय या कार्यालय जाना, नियत तिथि को व्रत-उपवास करना आदि आदि।
- काम्यकर्म – किसी उद्देश्य से किया हुआ कार्य। जैसे किसी समारोह में गाना, जहां आपको पुरस्कार मिलने की संभावना हो आदि आदि।
- निष्काम्यकर्म – बिना किसी स्वार्थ के किया गया कार्य। जैसे राह चलते किसी की सहायता कर देना आदि आदि।
- निषिद्धकर्म – ऐसे कार्य, जिन्हें सामाजिक संरचना में नहीं करने योग्य माना गया है। जैसे – चोरी, हत्या आदि आदि।
अब तक हमने कर्म के जितने प्रकार की बात की है, वे सब कर्म करने के माध्यम, भाव और विचार आदि के आधार पर हैं। अब थोड़ा सा और आगे बढ़ते हैं।
इन सब के अतिरिक्त कर्म का वर्गीकरण काल के अनुसार भी किया जाता है और इसी वर्गीकरण से भाग्य का मार्ग बनता है। काल के अनुसार कर्म के तीन प्रकार हैं-
– क्रियमाण कर्म : वह कर्म जो आप अपने जीवन में कर रहे हैं। वह कर्म ऊपर बताए गए किसी भी कर्म की श्रेणी में हो सकता है। वस्तुत: ऊपर जितने भी वर्गीकरण किए गए हैं और जितने भी प्रकार बताए गए हैं, वे सब क्रियमाण कर्म के ही हैं।
– संचित कर्म : कर्मफल का सिद्धांत कहता है कि जीवन में व्यक्ति को हर कर्म का फल मिलना है। उदाहरण के रूप में, आपने अपने पुत्र से पानी लाने को कहा। यह कहना आपका कर्म है और उस कहने पर पानी मिल जाना उसका कर्मफल है। आप कार्यालय में गए और वहां नियत कार्य किया। इसके बदले में वेतन मिल जाना उसका कर्मफल है। परंतु, जीवन में ऐसे भी बहुत से कर्म हैं, जिनका तत्काल कोई फल हमें नहीं मिलता है। जैसे आपने मार्ग में किसी की सहायता की और अपने अन्य कार्यों में लग गए। उस व्यक्ति की सहायता के रूप में किए गए आपके कर्म का कोई फल आपको नहीं मिला। वह कर्म आपका संचित कर्म बन जाता है। जो इसी जीवन में भविष्य में किसी रूप में भी प्राप्त हो सकता है और किसी अन्य जन्म में भी उसका कर्मफल प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार से हर जीव अपने अनगिनत जन्मों में ऐसे अनगिनत संचित कर्म बनाता है। इतना ही नहीं, गर्भधारण के समय ही माता-पिता के जीवन से भी बहुत से संचित कर्म व्यक्ति को मिलते हैं। गर्भधारण के समय की परिस्थितियां भी प्रभाव डालती हैं। यही कारण है कि हमारे शास्त्रों में गर्भधारण को जीवन का पहला संस्कार माना गया है। (कर्मफल की व्याख्या आगे करेंगे।)
– प्रारब्ध : जब एक शरीर त्यागकर आपकी आत्मा नया जन्म लेने जा रही होती है, उस समय आपके संचित कर्मों में से कुछ के कर्मफल निर्धारित कर दिए जाते हैं। यही प्रारब्ध होता है। इसी के आधार पर यह निर्णय होता है कि आप किस योनि में जन्म लेंगे, कहां व किन परिस्थितियों में जन्म लेंगे। यदि मनुष्य हैं, तो घर-परिवार, समाज, देश सबका निर्धारण आपके कुछ संचित कर्मों के आधार पर हो जाता है, जो आपके प्रारब्ध के रूप में आपके सामने आता है।
अब बात करते हैं कर्मफल की।
यह विज्ञान के उस सिद्धांत पर आधारित है, जिसमें कहा गया है कि हर क्रिया के विपरीत और उसके बराबर प्रतिक्रिया होती है। गीता में कर्मफल के सिद्धांत को व्याख्यायित किया गया है। साधारण शब्दों में इसका अर्थ यही है कि हर किए गए कर्म का एक फल होता है। वह कर्मफल तत्काल भी मिल सकता है और कभी किसी अन्य जन्म में भी मिल सकता है।
यहीं से बनता है भाग्य का मार्ग।
कर्म की ही तरह भाग्य भी कोई सरल रेखीय व्यवस्था नहीं है। यह भी कई रूप में हमारे जीवन में आता है और उसे प्रभावित करता है। भाग्य का पहला स्वरूप है प्रारब्ध, जिसके बारे में हमने ऊपर बताया है। आपके अनगिनत जन्मों के संचित कर्मों में से कुछ कर्मों के कर्मफल जन्म के समय से ही आपके साथ प्रारब्ध के रूप में जुड़ जाते हैं। इससे यह निर्धारित होता है कि आप कहां और किन परिस्थितियों में जन्म लेंगे और किस तरह से आपका लालन-पालन होगा। यह जीवन का वह भाग है, जिसे निर्धारित करना आपके वश में नहीं है। हालांकि गर्भधारण संस्कार एवं गर्भस्थ शिशु के वैचारिक विकास के लिए अन्य आवश्यक कर्म (शास्त्रों का पठन-पाठन एवं पूजा-पाठ आदि) करते हुए माता-पिता अपने पुत्र के प्रारब्ध के अनुसार निर्धारित किसी अशुभ को भी एक सीमा तक कम कर सकते हैं।
जीवन के अलग-अलग चरणों में आपका प्रारब्ध इसी प्रकार से आपके जीवन की कुछ-कुछ घटनाओं को निर्धारित करता रहता है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि प्रारब्ध यह तो निर्धारित करता है कि आपका जन्म कहां एवं किन परिस्थितियों में होगा, किंतु आपका पूरा जीवन कैसे बीतना है, यह प्रारब्ध निर्धारित नहीं करता है।
इसे एक छोटी सी कहानी से समझते हैं।
एक व्यक्ति कार्यालय जाने के लिए तैयार हो रहा है। पत्नी नाश्ता लगा रही है। उसकी छोटी सी बेटी भी स्कूल जाने की तैयारी में है। पति-पत्नी नाश्ते की टेबल पर हैं। तभी बेटी उछलकूद करते हुए वहां पहुंचती है और हड़बड़ाहट में उससे चाय का कप गिर पड़ता है। चाय सीधे उसके पिता के कपड़े पर गिरती है। बच्ची सहम जाती है। पिता क्रोध में उसे थप्पड़ मार देता है। सुबह-सुबह बच्ची पर हाथ उठाना पत्नी को अच्छा नहीं लगता।
खैर, सबका मन खराब हो चुका है। गुस्से और जल्दबाजी में ही वह कपड़ा बदलता है और कार में बैठ जाता है। बेटी को स्कूल पहुंचाने की जिम्मेदारी भी उसी की थी। गुस्से में ही स्कूल की ओर कार दौड़ा देता है। रास्ते में ध्यान नहीं देने के कारण ओवर-स्पीडिंग का चालान कट जाता है। वहां से कार्यालय पहुंचने पर याद आता है कि आज इस गहमागहमी में अपना सूटकेस भी नहीं लाया। पत्नी रोज बाहर निकलते समय सूटकेस देती थी, लेकिन आज गुस्से में किसी को ध्यान नहीं रहा। कार्यालय में दिन भी बेमन ही बीतता है। शाम को घर पहुंचने पर बेटी अभी थोड़ा सहमी हुई ही है और पत्नी का मन भी थोड़ा अशांत ही है। इस तरह पूरा दिन बेकार ही बीता।
अब…
इस कहानी को दोबारा लिखते हैं।
पति-पत्नी नाश्ते की टेबल पर हैं। बेटी उछलते हुए आती है और चाय का कप गिर जाता है। चाय पिता के कपड़े पर गिरती है और बेटी अपनी गलती समझकर सहम जाती है।
इतनी घटना होनी थी, हो गई। यह प्रारब्ध है।
अब आगे थोड़ा सा बदलाव कर दीजिए।
चाय गिरने के बाद पिता गुस्सा नहीं करता, बल्कि सहमी हुई बेटी को प्यार से पुचकारकर कहता है, कोई बात नहीं बेटी, हो जाता है।
इसके बाद शांत मन से वह कपड़े बदलता है। सामान्य दिनों की ही तरह सब नाश्ता करते हैं। पत्नी सूटकेस देती है। बच्ची को आराम से कार चलाते हुए स्कूल छोड़ता है। कार्यालय में भी अच्छी तरह से काम होता है। शाम को घर आते ही बच्ची आकर लिपट जाती है। पत्नी भी अन्य दिनों की ही तरह खुश है।
पूरा दिन अच्छा बीता।
ऊपर दोनों कहानियों में प्रारब्ध एक जैसा ही है, चाय के कप का गिर जाना…
लेकिन उसके बाद व्यक्ति का कर्म आगे के परिणाम को बदल देता है।
जीवन का सार यही है।
भाग्य यानी प्रारब्ध की भूमिका भी लगभग उस चाय के कप के गिरने जितनी ही होती है, लेकिन आगे हमारा कर्म सभी परिणामों को बदल देता है।
भाग्य और कर्म का एक संबंध तो यहां समझ आता है। यह भी निश्चित है कि कर्म प्रधान है और वह भाग्य के दीर्घकालिक परिणाम को बदल सकता है।
लेकिन,
जैसा कि हमने पहले ही लिखा है कि भाग्य भी कोई सरल रेखीय व्यवस्था नहीं है। प्रारब्ध से इतर, इसके और भी कई रूप हैं।
इसे समझने के लिए फिर से ऊपर बताई गई कहानी में प्रारब्ध वाले भाग पर विचार करते हैं।
प्रारब्ध ने तय किया, ‘चाय के कप का गिरना’
किंतु
यह हुआ कैसे?
चाय का कप गिरा कैसे?
वस्तुत: चाय के कप का गिरना बेटी के कर्म का कर्मफल था। बच्ची लापरवाही से उछलते हुए बिना देखे टेबल की तरफ आई और इसका कर्मफल उस कप के गिरने के रूप में सामने आया।
इससे आप क्या निष्कर्ष निकाल रहे हैं?
आपका जो भाग्य है, वह आपके या किसी अन्य के कर्म का परिणाम है।
बस,
कर्म और भाग्य की डोर यहीं एक-दूसरे में गुथ जाती है। हर भाग्य किसी कर्म का ही परिणाम है। यहां तक कि आपके संचित कर्म से प्रारब्ध के रूप में जो भाग्य तय हुआ, उसे भी परिणाम के रूप में सामने आने के लिए किसी अन्य के कर्म की आवश्यकता है। जैसे, प्रारब्ध ने यह तय किया कि आपको कहां और किन परिस्थितियों में जन्म लेना है, लेकिन आपका वह प्रारब्ध परिणाम तक तभी पहुंचेगा, जब वहां उन परिस्थितियों में कोई दंपती अपने कर्म का निर्वहन करेंगे।
आपने बहुत परिश्रम किया, लेकिन परीक्षा में प्रथम नहीं आए।
क्यों?
क्योंकि प्रथम आने के लायक कर्म किसी अन्य ने किया।
आप सड़क पर सही गति और दिशा में चल रहे थे, लेकिन एक्सीडेंट हो गया।
क्यों?
क्योंकि किसी अन्य ने गति और दिशा का पालन नहीं किया।
आपका हर भाग्य आपके या किसी अन्य के कर्म का परिणाम है।
इसी तरह आपके हर कर्म का परिणाम आपके या किसी अन्य के भाग्य का निर्धारण करता है।
इस संसार में हर जीव अन्य जीव से संबद्ध है। जीव का अर्थ केवल मनुष्य नहीं, हर योनि का हर जीव। सब एक-दूसरे से जुड़े हैं और सबके कर्म एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और एक-दूसरे के भाग्य का निर्माण करते हैं।
इन सब बातों से एक निष्कर्ष निकलता है कि जीवन मूलत: कर्म ही है और कर्म का परिणाम ही भाग्य है। कुछ परिणाम अपने हाथ में नहीं होते हैं, क्योंकि किसी अन्य के कर्म आपके हाथ में नहीं होते हैं।
प्रश्न है कि आपके वश में क्या है?
केवल अपने कर्म।
कर्म और कर्म परिणाम के प्रभाव को समझने के लिए एक और बात समझने की आवश्यकता है।
यह कि आप पर किस-किस के कर्म का कितना प्रभाव पड़ता है?
सबसे पहले आपके कर्म। फिर आपके परिवार के सदस्यों के कर्म। फिर आपके समाज के लोगों के कर्म। फिर इस संसार में अन्य सभी लोगों के कर्म।
आपके कर्म आप पर कैसे प्रभाव डालते हैं, इसमें कोई गुत्थी नहीं है। आप आंख बंद करके चलते हैं, ठोकर लग जाती है। आपका कर्म, आपको मिला परिणाम।
– परिवार के सदस्यों के कर्म कैसे प्रभाव डालते हैं?
इसे एक उदाहरण से समझिए। आपका भाई किसी से झगड़ा कर आता है और वह व्यक्ति रास्ते में आपको देखता है और आपसे बदला ले लेता है। इस तरह आपको आपके भाई के कर्म का फल मिला। परिवार के सदस्यों के अच्छे कर्म का भी इसी तरह आपको अच्छा परिणाम मिलता है।
– समाज के कर्म कैसे प्रभावित करते हैं?
आपके शहर में दंगा हो गया। आप उधर से गुजर रहे थे और उसका शिकार हो गए। इसमें न आपने कुछ किया था और न ही आपके परिवार के किसी सदस्य ने। लेकिन परिणाम आपको भी भुगतना पड़ा।
– संसार में अन्य लोगों के कर्म कैसे प्रभाव डालते हैं?
इसे समझना बहुत आसान है। रूस ने यूक्रेन पर हमला किया। न आपकी भूमिका, न आपके परिवार की भूमिका, न आपके शहर या देश की भूमिका। लेकिन उस युद्ध के कारण महंगाई का सामना आपको भी करना पड़ रहा है।
परिवार, समाज और संसार के अन्य लोगों के कर्मों के प्रभाव को देखकर यह मत सोचिए कि आपके अपने कर्म तुच्छ हैं। देखने में भले ही परिवार, समाज और संसार बड़े दिख रहे हैं, लेकिन कर्म प्रभाव के मामले में आपके कर्म सबसे ज्यादा प्रभावी हैं। आप अपने कर्म से अन्य सभी के कर्मों के कारण अपने ऊपर पड़ने वाले प्रभाव को कम कर सकते हैं।
इसे भी उदाहरण से समझते हैं।
– परिवार के कर्म से ऊपर-
आपके भाई ने किसी से लड़ाई की, लेकिन आपकी अपनी छवि इतनी अच्छी है कि वह व्यक्ति यह कहते हुए आपके पास से चला जाता है कि ये बिलकुल अपने भाई जैसा नहीं है। बहुत अच्छा है, इसे नहीं परेशान करना चाहिए।
– समाज के कर्म से ऊपर-
इससे आप दो तरह से बाहर निकल सकते हैं। पहला, आपने स्वयं को इतना प्रतिष्ठित एवं सम्मानित बना लिया है कि कहीं भी और कैसा भी दंगा हो, लेकिन आपको देखने वाला व्यक्ति स्वयं ही आपको सम्मान के साथ वहां से सुरक्षित बाहर निकाल देता है। जैसे किसी दंगे वाले स्थान पर कोई बड़ा अधिकारी या नेता-मंत्री पहुंच जाए, तो उसे उस हंगामे में भी कोई भय नहीं रहेगा। उसकी सुरक्षा में अनगिनत लोग खड़े रहेंगे।
दूसरा तरीका, आपने दूर से ही देखा कि सामने कोई हंगामा हो रहा है और आप तुरंत सतर्क होकर दूसरे रास्ते से सुरक्षित अपने घर पहुंच गए। या, जैसे आपको पता है कि किसी इलाके में किसी रास्ते पर रात में लूट-मार होती है, तो आप उस इलाके में, उस रास्ते पर कभी शाम ढलने के बाद अकेले जाते ही नहीं।
– संसार के अन्य जीवों के कर्म से ऊपर-
यूक्रेन पर रूस के हमले से महंगाई बढ़ी, लेकिन आपने स्वयं को इतना समृद्ध बना लिया है कि आप पर इन कीमतों के घटने-बढ़ने से कोई विशेष प्रभाव ही नहीं पड़ता।
इन सब उदाहरणों से यह बात फिर स्थापित हो जाती है कि जीवन में सर्वाधिक प्रभाव आपके स्वयं के कर्मों का ही पड़ता है। यदि किसी कर्म से अपेक्षित फल नहीं मिल रहा है, तो इसका सीधा सा अर्थ यही है कि उस अपेक्षित फल को पाने के योग्य कर्म किसी अन्य ने कर लिया। अब यह आप पर निर्भर करता है कि उसे भाग्य मानकर बैठ जाएं या फिर कर्म को और श्रेष्ठ बनाएं, जिससे अंतत: अपेक्षित परिणाम मिल जाए।
क्योंकि भाग्य (यानी पहले से किए जा चुके आपके कर्म या दूसरों के कर्म) को तो आप बदल नहीं सकते हैं, लेकिन आगे के अपने कर्म के माध्यम से भविष्य के लिए अपेक्षित भाग्य अवश्य लिख सकते हैं।
कर्मफल ही भाग्य है।
(समाधान है… कॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिए… क्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)