‘दूर के ढोल सुहाने होते हैं’, यह कहावत तो हम में से हर किसी ने सुनी ही होगी। इसका शाब्दिक अर्थ है, कि कहीं दूर जब ढोल बजता है, तो उसकी थाप सुहानी लगती है। उसमें संगीत सा झरता है। वहीं ढोलक कोई कानों के पास आकर बजाने लगे, तो वह थाप कर्कश सी अनुभव होने लगती है।
असल में यह कहावत जीवन का सार है। यह जीवन के हर पहलू पर चरितार्थ होने वाली कहावत है। क्योंकि बात केवल ढोल की नहीं है, जीवन में किसी भी वस्तु, व्यक्ति या संबंध के विषय में ऐसा हो सकता है।
उदाहरण के तौर पर जो वस्तु दूसरे के पास है, वह हमें अपने पास उपलब्ध वस्तु से बेहतर लगती है।
जिस व्यक्ति का साथ हमें नहीं मिल पाता है, उसके साथ को लेकर हमारी कल्पना होती है कि वह साथ बहुत अच्छा होगा। हम उन लोगों से कहीं भीतर ही भीतर ईर्ष्या सी पाल लेते हैं, जिन्हें उस व्यक्ति का साथ मिलता है।
ऐसा ही कई बार संबंधों के मामले में भी होता है। कभी दूसरे के भाई का व्यवहार अपने भाई से अच्छा लगता है, तो कभी दोस्त के माता-पिता अपने माता-पिता से ज्यादा प्रेम और चिंता करने वाले लगते हैं। इस मामले में स्थिति ज्यादा चिंताजनक तब हो जाती है, जब किसी का जीवनसाथी अपने जीवनसाथी से ज्यादा अच्छा लगने लगता है।
प्रश्न उठता है कि ऐसा होता क्यों है?
वैसे कहावत के मूल शाब्दिक अर्थ में इसका उत्तर निहित ही है। ढोलक की थाप वास्तव में कितनी कर्कश या मधुर है, इसका अनुभव आपको तभी होता है, जब वह आपके कानों के पास हो।
लेकिन फिर प्रश्न मन में आएगा कि आखिर वही थाप तो दूर से भी आ ही रही थी। यदि वह कर्कश ही होती है, तो दूर से अच्छी क्यों लगती है? पास हो या दूर, सुनते तो हमारे कान उसी थाप को हैं। पास से कर्कश और दूर से मधुर हो जाने का क्या रहस्य है?
इसके लिए ध्वनि और उसकी यात्रा के विज्ञान को समझना होगा।
हम सब जानते ही हैं कि कोई भी ध्वनि सृजित होने के बाद अपने मूल स्रोत से हमारे कान तक की यात्रा तय करती है और हम उसे सुनते हैं। उसका सृजन बिंदु जितना दूर होगा, हमारे कान के पास आने की यात्रा में उस ध्वनि को उतना ही ज्यादा संघर्ष करना होगा।
पूरे रास्ते उसे अनगिनत वायु कणों से जूझना होगा, अनगिनत सूक्ष्म परत जो हवा में बनी हैं, उन्हें पार करते हुए उसे हमारे कानों तक पहुंचना होता है। इस यात्रा में उसकी गति और शक्ति दोनों शिथिल पड़ते हैं।
ढोलक की थाप से निकली ध्वनि की तीव्रता ही उसे कर्कश बनाती है। दूर से यात्रा करते हुए हम तक पहुंचने के क्रम में वह शिथिल हो चुकी होती है। उस स्थिति में हमारे पास तक पहुंचने वाली ध्वनि असल में उसका संपादित स्वरूप यानी एडिटेड वर्जन होती है। उसकी कर्कशता शिथिल पड़ चुकी होती है और हमें उसके साथ रची-बसी लय ज्यादा स्पष्ट रूप से ध्वनित होती है। यही विज्ञान दूर के ढोल को सुहाना बना देता है।
अब ढोल की थाप के प्रभाव में परिवर्तन का विज्ञान तो आप समझ ही गए हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि वस्तु, व्यक्ति या संबंधों के मामले में ऐसा क्या होता है? उसमें कौन सा विज्ञान है?
इसके पीछे मनोविज्ञान है।
आरंभ वस्तु से करते हैं।
एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं।
एक बच्चा अपने दादा के साथ मेला घूमने गया था। वहां उसे हवा भरे गुब्बारे खरीदने का मन हुआ। उसने दादा से कहा। दादा ने कीमत पूछी। एक गुब्बारा एक रुपये का था। दादा धीरे से यह कहते हुए आगे बढ़ गए कि बहुत महंगा है बेटा। फिर कभी ले लेंगे।
कुछ समय बाद फिर वही बच्चा अपने दादा के साथ एक और मेले में घूम रहा था। फिर उसका मन हुआ गुब्बारा लेने का। दादा ने कीमत पूछी तो एक गुब्बारा पांच रुपये का था।
दादा ने कहा, ‘अरे वाह, बहुत सस्ते हैं। पांच ले चलो बेटा। घर पर छोटे भाई-बहनों को भी दे देना।’ यह सुनते ही बच्चे को पिछली बात याद आ गई। उसने पूछा, ‘दादा, कुछ ही समय पहले गांव के मेले में एक रुपये में एक गुब्बारा मिल रहा था और आपने उसे महंगा कहा था।
आज पांच रुपये में एक गुब्बारे को भी आप सस्ता कह रहे हैं। ऐसा क्यों?’ इस पर दादा ने उत्तर दिया, ‘बेटा, उस दिन जेब में एक रुपया नहीं था, लेकिन आज बहुत रुपये हैं। सस्ता या महंगा कोई सामान नहीं होता है बल्कि सस्ता और महंगा तो पैसा होता है।’
आप सोच रहे हैं कि भला इस कहानी का हमारे मूल विषय से क्या लेना-देना? असल में इस कहानी से जो सीख मिली है, उसका हमारे विषय से लेना-देना है।
यह कहानी बताती है कि किसी वस्तु का मूल्य इस बात पर निर्भर करता है कि उसे पाने में हमें कितनी आसानी या मुश्किल हुई। बहुत आसानी से मिल गई वस्तु सस्ती अनुभव होती है और बहुत संघर्ष से मिली वस्तु मूल्यवान लगती है।
अब आते हैं अपने मूल विषय पर। जो वस्तु दूसरे के पास है और हमारे पास नहीं है, वह हमें अक्सर बहुमूल्य लगती है। यदि समय के साथ वही वस्तु आपको आसानी से मिल जाए, तो उसके साथ कुछ समय बाद आपका अनुभव उतना रोचक नहीं रह जाएगा, जितना आप सोच रहे होते हैं।
जैसे शहर में बढ़िया एसी वाले कमरे में नरम गद्दे पर सोने वाले कुछ लोगों को गांव की चारपाई और पेड़ों की छांव बहुत रोमांचित करती है। वहां विलेज टूरिज्म करना उन्हें बहुत अच्छा भी लगता है। लेकिन यदि समय चक्र घूम जाए और उन्हें शहर की हर व्यवस्था छोड़कर उसी गांव में रहना पड़ जाए, तब यह उन्हें रोमांचित नहीं करता।
शहर से विलेज टूरिज्म के दौरान जब वे गांव देखते हैं, तो वह गांव का एडिटेड वर्जन होता है, जिसे उनकी आवश्यकता के अनुरूप एडिट किया गया है।
मैदान में रहने वालों का पहाड़ों प्रति आकर्षित होना भी ऐसा ही है। पर्यटन के लिए पहाड़ अच्छे हैं, लेकिन वहां के जीवन के वास्तविक कष्ट वहीं के व्यक्ति समझ सकते हैं। पहाड़ों से अनगिनत लोग उन कष्टों से परेशान होकर मैदान में बस जाना चाहते हैं।
वास्तव में जो भी वस्तु हमारे पास नहीं है, हमें उसके साथ जुड़ी समस्याओं का भान नहीं होता है।
आपको किसी अन्य के पास उपलब्ध वस्तु अच्छी लगती है। किसी अन्य को आपके पास उपलब्ध वस्तु अच्छी लगती है। कारण दोनों के लिए एक ही है कि दोनों ही उन वस्तुओं के साथ जुड़ी चुनौतियों को नहीं जानते हैं।
यही बात व्यक्ति और संबंधों के बारे में भी सही है।
कोई व्यक्ति कैसा है, उसका पूर्ण अनुभव उसके साथ जो है, उसे ही हो सकता है। आपके समक्ष कुछ पल के लिए जो आता है, वह उसका एडिटेड वर्जन है। वह ढोल की उसी थाप की तरह है, जिसकी तीव्रता आपके कानों तक आते-आते मंद हो गई है और आपको केवल उसके साथ रची-बसी लय ध्वनित हुई।
उस बहुत अच्छे व्यक्ति का साथ जब पूर्ण तीव्रता से आपके पास आएगा, तब आवश्यक नहीं कि वह उतना ही अच्छा लगे। कभी हर छोटी-बड़ी बात में अपने साथी की चिंता करने वाला व्यक्ति अपने जीवन में आपको अपनी स्वतंत्रता और स्वच्छंदता पर लगाम लगाने वाला भी अनुभव हो सकता है।
प्रश्न यह भी है हमें करना क्या चाहिए?
दूर का ढोल तो सुहाना लगेगा ही। यह परम सत्य है। किसी अन्य के जीवन से जुड़ी वस्तु आकर्षित करेगी ही और किसी अन्य के संबंध भी लुभावने लगेंगे ही। यह सब होना स्वाभाविक है। कभी भी जीवन में ऐसा हो, तो खुद पर गुस्सा मत कीजिए। कभी अपने जीवन के किसी संबंध की तुलना किसी अन्य के संबंध से करने का मन हो जाए, तो स्वयं को गलत मत मान लीजिए।
इस तरह के विचार को एकदम सहजता से स्वीकार कीजिए। मानिए कि ऐसा होना न गलत है और न ही अस्वाभाविक है।
जब आप इस बात को सहजता से स्वीकार कर लेते हैं, तभी आप सहज होकर उस पर विचार भी कर पाते हैं।
विचार कीजिए कि ईश्वर ने आपको जो संबंध दिया है, उसमें क्या विशेषताएं हैं? अपने संबंधों को दूसरे की दृष्टि से देखने का प्रयास कीजिए यानी अपने ढोलक की थाप को थोड़ा दूर हटकर सुनने का प्रयास कीजिए। इससे आपको उस कर्कशता के साथ रची-बसी लय भी सुनाई देने लगेगी। वैसे भी कहा जाता है कि यदि कोई वस्तु आंखों के बहुत पास कर ली जाए, तो दृश्य थोड़ा धुंधला हो जाता है।
जब आप अपने ढोलक की थाप के साथ रची-बसी लय को अनुभव करने लगते हैं, तब आपको उसमें दूर के ढोल से ज्यादा आनंद आने लगता है। यह आनंद वैसा ही जैसे किसी ढोल के वादक को आता है। ढोलक के सबसे निकट वही होता है और सबसे ज्यादा आनंद भी वही लेता है। वह न सिर्फ उसकी लय को अनुभव करता है, अपितु उसे आत्मसात भी करता है और उस लय को अपनी इच्छा के अनुरूप स्वरूप भी देता है। अपने जीवन के संबंधों के साथ जुड़ी लय को भी अनुभव और आत्मसात कीजिए। उनकी तीव्रता के कारण अनुभव होने वाली कर्कशता स्वत: ही समाप्त हो जाएगी।
और जिस दिन आप अपने ढोलक की थाप और उसकी लय के साथ जीवन की ताल को मिलाना सीख जाएंगे, दूर से ज्यादा सुहाने आपको पास के ढोल लगने लगेंगे।
(समाधान है… कॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिए… क्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)