संयोग बनना संयोग की बात नहीं…

वाणी और संयोग में हैं कोई संबंध ?

शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसने अपने जीवन में कभी किसी संयोग का अनुभव न किया हो। अक्सर छोटी-छोटी घटनाओं और बातों के रूप में हमारे जीवन में संयोग बनते ही रहते हैं। ऐसा ही एक संयोग बना जब हमारे पाठक व मित्र प्रियव्रत ने प्रश्न किया कि ‘जीवन में संयोग बार-बार क्यों होता है?’ उनका यह प्रश्न पूछना इसलिए संयोग है, क्योंकि उससे कुछ ही समय पूर्व मैं अपने इस स्तंभ के लिए ऐसे ही किसी विषय या प्रश्न की अपेक्षा कर रहा था। लेकिन जब यह प्रश्न सामने आ गया, तब से संयोग ही नहीं बन पाया कि इसके समाधान में कुछ लिख पाऊं।

आज यह प्रश्न भी है और इसके समाधान में कुछ लिखने का संयोग भी है।

सबसे पहले समझते हैं कि संयोग है क्या? हम संयोग कहते किसे हैं?

संयोग का अर्थ है ‘मिलन’। जब किसी पूर्व निर्धारित योजना के बिना जीवन में दो घटनाएं या दो विचार मिल जाते हैं, तो उसे हम संयोग कह देते हैं।

इसका एक सामान्य सा उदाहरण है कि आप घर में किसी मित्र के बारे में बात कर रहे होते हैं और तभी संयोगवश उसी मित्र का फोन आ जाता है या वह स्वयं ही आपके घर चला आता है।

संयोग ही होता है कि कहीं दूर रह रहे किसी मित्र, परिचित या परिजन के बारे में आप सोच रहे होते हैं, जिससे महीनों से बात नहीं हुई है। किसी घटनावश आपको उसका ध्यान आ जाता है और आपके मन में विचार आता, लेकिन अन्य कार्यों में उलझकर आप फोन नहीं कर पाते हैं। फिर एक-दो दिन के अंतराल पर अचानक ही वह व्यक्ति आपको फोन कर लेता है। फोन आते ही आपके मन में आता है कि यह कैसा संयोग है? अभी दो दिन पहले ही तो मैंने सोचा था इससे बात करने के बारे में।

ऐसे अनगिनत उदाहरण जीवन में मिलते हैं।

अब आते हैं मूल प्रश्न पर कि संयोग क्यों और कैसे बनते हैं?

इसका उत्तर भी ऊपर संयोग के इन उदाहरणों में ही छिपा है, लेकिन थोड़ा गहराई में।

इसे समझने का प्रयास करते हैं।

ध्यान से देखें तो एक बात है जो संयोग के सभी प्रकरण में रहती ही  है। वह है आपका विचार और आपकी वाणी।

कैसे?

पहले उदाहरण में आप अपने मित्र के बारे में घर में बात कर रहे थे यानी आपकी वाणी प्रभावी थी और तभी संयोगवश मित्र का फोन आया या कुछ ही देर में वह स्वयं आ गया।

दूसरे उदाहरण में भी उस संबंधित व्यक्ति के बारे में सोच रहे थे, जिससे कई महीने से बात भी नहीं हुई थी। कोई प्रसंग आया और अचानक आपके मन में उस व्यक्ति से संबंधित विचार आ गए। इस उदाहरण में आपका विचार प्रभावी था और संबंधित व्यक्ति ने कुछ समय बाद आपको फोन कर लिया।

जीवन में संयोग के जितने भी प्रसंग आप ध्यान में लाएंगे, सबमें आपकी वाणी या विचार की भूमिका दिखेगी। वस्तुत: इनके बिना कोई संयोग बन ही नहीं सकता है।

अब बात आती है कि वाणी या विचार के कारण संयोग कैसे बन जाते हैं?

इसके लिए हमें वैदिक आधार पर वाणी के प्रकार के बारे में जानना होगा।

सामान्य अर्थ में जो हमारी जिह्वा ने बोला और किसी के कान ने सुना, वह वाणी है।

लेकिन वैदिक व्याख्या में वाणी का अस्तित्व मात्र इतना नहीं है।

वाणी के चार प्रकार का उल्लेख किया गया है:

  • वैखरी वाणी
  • मध्यमा वाणी
  • पश्यन्ती वाणी
  • परा वाणी
  1. वैखरी वाणी हमारी वाणी का सर्वाधिक स्थूल स्वरूप है। सामान्य बातचीत में जो ध्वनि निकल रही है, वह वैखरी वाणी है। इसमें बहुत सामान्य शब्द युग्म और वाक्य रहते हैं। मूलत: वाणी का यह स्वरूप सूचनाओं को आगे बढ़ाने, हास-परिहास करने, संवाद करने में प्रयोग होता है। हम सब सामान्यत: वैखरी वाणी का ही प्रयोग करते हैं।
  2. मध्यमा वाणी का स्तर इससे थोड़ा ऊंचा है। इसमें मात्र ध्वनि की भूमिका नहीं होती है। इसमें ध्वनि थोड़ा गौण हो जाती है और भाव प्रभावी हो जाते हैं। व्यक्ति की भाव-भंगिमा से बात का आभास हो जाता है। जैसे कोई व्यक्ति क्रोध में होता है, तो उसके मुख को देखकर ही आपको आभास हो जाता है। ऐसे ही प्रेम, समर्पण, तनाव, चिंता आदि भाव भी झलक जाते हैं। इसमें स्थूल वाणी यानी वैखरी वाणी की बहुत आवश्यकता नहीं रह जाती है।
  3. पश्यन्ती वाणी इन दोनों से उच्च स्तर की वाणी है। यह हृदय से निकलती है। निश्छल संत, छल-कपट से दूर रहने वाला कोई साधारण व्यक्ति जब हृदय से किसी के प्रति कोई विचार मन में लाता है, तो उसे पश्यन्ती वाणी की श्रेणी में रखा जाता है। वह विचार आपकी जिह्वा पर ध्वनि बनकर आ भी सकते हैं और यह भी हो सकता है किसी प्रार्थना, आशीर्वाद या आभार के रूप में वह बस हृदय ही में रह जाएं।
  4. परा वाणी को वाणी का सर्वोच्च स्वरूप माना जाता है। इसे देव वाणी भी कहते हैं। स्रोत के रूप में देखें तो यह नाभि से सृजित होती है। यहां आत्म और परमात्म के मिलन का बोध रहता है। यह वाणी की अव्यक्त एवं सूक्ष्मतम अवस्था है।     योगी ही इसका अनुभव कर पाते हैं।   शब्द मात्र कुछ तरंगों के रूप में जन्म लेते हैं और अपने उद्देश्य की पूर्ति के साथ ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। अर्जुन को श्रीकृष्ण की तरफ से मिला गीता ज्ञान परा वाणी ही है।

क्रमिक रूप से देखें तो परा वाणी अव्यक्त है। जब शब्दों को रूप देने की इच्छा होने लगती है, तब पश्यन्ती वाणी जन्म लेती है। जब उस वाणी के लिए शरीर तंत्र में हलचल होने लगती है, तब मध्यमा वाणी बनती है। अंत में जब आपके स्वर तंत्र यानी कंठ, जिह्वा, तालू, होंठ और मस्तिष्क सब सक्रिय होकर शब्द को ध्वनि रूप में व्यक्त कर देते हैं, तो वैखरी वाणी हो जाती है। परा वाणी दैवीय है। इसमें निकले हर निर्देश को तत्काल सत्य होना है। यह वाणी सृजित होते ही महत् तत्व, मूल तत्व और परम तत्व से संयोग करती है और घटना को सत्य करती है। पश्यन्ती और मध्यमा वाणी की ऊर्जा भी विचार को परिणाम में बदलती है, परंतु उसमें थोड़ा समय लगता है।

(महत् तत्व, मूल तत्व और परम तत्व के बारे में जल्द ही जानकारी भरा लेख आपको प्राप्त होगा।)

 

वाणी की इस व्याख्या के बाद मन में यह प्रश्न उठ रहा होगा कि आखिर इनका संयोग से क्या संबंध?

आगे इसी संबंध की बात करते हैं।

वस्तुत: आप जब भी कुछ बोलते हैं तो वह ध्वनि इस ब्रह्मांड में विलीन होती है। इस क्रम में वह ब्रह्मांड के अनगिनत अणुओं को आंदोलित करने की क्षमता रखती है। वैखरी वाणी की ऊर्जा सबसे कम होती है, जिस कारण से उसके प्रतिउत्तर या प्रभाव की अनुभूति नहीं हो पाती है। स्थूल स्वरूप होने के कारण इसका तत्काल प्रभाव किसी प्रतिक्रिया के रूप में आपको मिल जाता है।

जैसे आप बेटे से कहते हैं कि आपको पानी दे तो प्रतिक्रिया स्वरूप वह आपके लिए किसी गिलास में पानी ले आता है। या आप किसी को गाली देते हैं और वह आप पर क्रोधित होकर कोई प्रतिक्रिया देता है। इसमें सामने वाली की प्राण ऊर्जा और व्यक्तित्व के आधार पर आपको परिणाम मिल जाता है और वाणी का प्रभाव मूलत: लोप हो जाता है।

वाणी का स्तर बढ़ने के साथ ही उसकी ऊर्जा और ब्रह्मांड पर उसका प्रभाव बढ़ता जाता है।

असल में संयोग मध्यमा और पश्यन्ती वाणी के प्रभाव से बनते हैं। जब आप अपने मित्र की चर्चा कर रहे होते हैं, तो वह विचार स्वर तंत्र के माध्यम से वैखरी वाणी के रूप में बाहर आने से पूर्व आपके अंतर्मन में कहीं मध्यमा या पश्यन्ती वाणी के रूप में सृजित होता है। वह वाणी आपसे मुक्त होकर ब्रह्मांड में अणुओं को आंदोलित करती है और महत् तत्व से मिलकर उस प्रकार की परिस्थितियां निर्मित करती है, जिससे विचार सत्य में परिवर्तित होता है।

जैसे आप जब उस व्यक्ति के बारे में सोचते हैं, जिससे महीनों से बात नहीं हुई, तब वह विचार ब्रह्मांड के अणुओं को आंदोलित करते हुए उस संबंधित व्यक्ति तक पहुंचता है और उसके मन में स्वत: ही ऐसे विचार प्रस्फुटित करता है कि वह आपसे बात करे।

जब विचार किसी भौतिक वस्तु से जुड़े होते हैं तो उन्हें पूरा होने में थोड़ा अतिरिक्त समय लग सकता है। उदाहरण के तौर पर आपके मन में आया हो कि आपको कोई नए मॉडल का फोन लेना है। यह विचार मन में कई बार आया, लेकिन आप नहीं ले पाए। फिर संयोग बनता है कि कोई परिचित किसी अवसर पर आपको वही फोन उपहार के रूप में दे देता है। या ऐसा हो सकता है कि अचानक कहीं आपको उसी फोन से जुड़ा कोई ऑफर दिखता है और प्रेरित होकर आप उसे ले लेते हैं।

इस प्रकार के संयोग में समय लगता है। यदि संबंधित विचार पश्यन्ती वाणी के रूप में आपके अंदर सृजित हुआ है, तो वह तत्काल ब्रह्मांड में महत् तत्व और मूल तत्व के साथ मिलकर उन परिस्थितियों के निर्माण में लग जाता है, जिससे वह विचार सत्य हो। जब सभी संबंधित परिस्थितियों का निर्माण हो जाता है, तब एक संयोग बनता है और वह विचार सत्य रूप में आपके समक्ष आ जाता है।

वस्तुत: वाणी के सभी स्वरूप हमारे भीतर विद्यमान होते हैं, लेकिन हम उनसे अनभिज्ञ रहते हैं। इनके माध्यम से हम स्वयं ही अपने जीवन में अपने लिए संयोग का निर्माण करते हैं। यदि इन पर हमारा नियंत्रण हो, तो हम अपने या अन्य किसी के जीवन को सकारात्मक रूप से प्रभावित भी कर सकते हैं। वाणी के इन स्वरूपों को समझने और इन पर नियंत्रण के लिए गहन योग एवं ध्यान की आवश्यकता होती है।

अब अपने मित्र के प्रश्न को फिर देखते हैं, ‘जीवन में संयोग बार-बार क्यों होता है?

इस प्रश्न में ‘बार-बार’ शब्द पर विशेष आग्रह दिखता है।

हमने यह तो जान लिया कि संयोग क्यों होते हैं, अगला प्रश्न है कि बार-बार क्यों होते हैं?

यदि किसी के जीवन में संयोग बार-बार होते हैं, तो उसे अतिरिक्त सतर्क होने आवश्यकता है, क्योंकि इसका अर्थ यह है कि उसकी वाणी या विचार पर पश्यन्ती वाणी का प्रभाव अधिक है। यह उनके पूर्व जन्मों के संचित कर्म का भी परिणाम हो सकता है, जिससे उनकी वाणी में पश्यन्ती वाणी का प्रभाव अधिक है।

आप सोचेंगे कि इसमें सतर्क रहने की क्या बात है, यह तो अच्छा ही है कि हमारी वाणी में पश्यन्ती वाणी का प्रभाव अधिक है।

ऐसा नहीं है। मध्यमा, पश्यन्ती और परा वाणी अपने साथ बहुत जिम्मेदारी भी लाती हैं। जैसा कि हमने ऊपर पढ़ा कि इन वाणियों में कही हर बात को सत्य होना होता है। थोड़ा जल्दी या थोड़ा देर से, लेकिन हर बात सत्य होनी ही है।

यदि आपकी वाणी पर पश्यन्ती का प्रभाव ज्यादा है और आप उसे नियंत्रित करना भी नहीं जानते हैं, तो सतर्कता जरूरी है। क्योंकि यदि उस पश्यन्ती प्रभाव में आप कुछ नकारात्मक भी कहेंगे तो वह भी सत्य होना ही है। इसलिए ऐसे लोगों को यथासंभव सदैव अच्छा और सकारात्मक ही बोलना चाहिए, अपने लिए भी और समाज के लिए भी। इससे यदि  कोई बात पश्यन्ती के प्रभाव में कही गई होगी, तो जीवन में सुखद संयोग बनेगा। इससे आप बहुत लोगों का कल्याण भी कर सकेंगे।

आवश्यक यही है कि सतर्क रहिए, अच्छा बोलिए और इस अहंकार में कभी मत आइए कि आपने कोई शक्ति प्राप्त कर ली है। यह आपके संचित कर्म का प्रभाव है, जिसका आपको बहुत संभलकर प्रयोग करना चाहिए। दुरुपयोग से शक्ति क्षीण भी होती है और नकारात्मक प्रभाव भी डालती है।

वैसे भी, हमारे बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि हमेशा अच्छा बोलना चाहिए, क्योंकि दिन के किसी भी समय वाणी पर सरस्वती जी विराजमान हो सकती हैं। वस्तुत: इसके पीछे का कारण यही है कि कब हमारी वाणी पर पश्यन्ती का प्रभाव होगा, वह हम भी नहीं जानते हैं, इसलिए हमेशा अच्छा बोलना अच्छे परिणाम देता है।

::: हरि अनंत, हरि कथा अनंता :::

(समाधान हैकॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिएक्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)

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