रूह का वो साथ बतलाने लगा था।
और यक़ी उस पर हमें होने लगा था।
मान बैठे हम उस ज़रूरत को मुहब्बत ,
इक नशा दिल पर भी तो छाने लगा था।
इस तरह उसने दिलाया था यक़ी के
हर तरफ वो ही नज़र आने लगा था।
मानकर अपना उसे हमने कहा कुछ
सामने किरदार फिर आने लगा था।
इक ज़रा सी बात पर वो बेवफ़ा बस
तोड़कर दिल छोड़कर जाने लगा था।
इस तरह टूटा यक़ी का एक बंधन
फिर ज़माना भी समझ आने लगा था।
उपर्युक्त ग़ज़ल मित्रपाल शिशौदिया द्वारा लिखी गई है।
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