लोग अक्सर अपनी कामयाबी का श्रेय तो खुद को ही देते हैं लेकिन अपनी हार के लिए तरह तरह के बहाने बनाने लग जाते हैं . पर चाहे हम किसी पर कितने भी आरोप लगा लें , अंतत ; ये हमारा जीवन है और हम खुद ही इसकी हर अवस्था के लिए जिम्मेदार हैं। हम अपने जीवन में किस प्रकार से आगे बढ़ते हैं इसके लिए और लोग सहायक या व्यवधान जरूर बन सकते हैं ।
लेकिन जिस प्रकार एक कुम्हार कच्ची मिट्टी से अपने मन के बर्तन तैयार करता है उसी तरह हम भी अपने शरीर से अपना जीवन तैयार करते हैं।
ऐसे ढेर सारे उदाहरण हमारे संसार में उपस्थित हैं जब व्यक्ति के पास उम्मीद के नाम पर कुछ विशेष नहीं रहा। जहां एक पल के लिए उस व्यक्ति को लगा होगा कि उसकी सारी दुनिया समाप्त हो गई लेकिन उसके मन के उत्साह ने ना उसे कभी रूकने दिया और ना ही कभी थकने दिया। अगर बात प्रसिद्ध पर्वतारोही अरुणिमा सिन्हा की ही की जाए तो यह कहानी किसी मुर्दो में भी जान भरने के लिए काफी है।
अरुणिमा सिन्हा एक बेहद आम परिवार से आने वाली लड़की थी। उन्होंने अपने घर की परिस्थिति को देखते हुए सीआईएसफ की परीक्षा पास की और वह दिल्ली से ट्रेन पकड़ कर सीआईएसफ की नौकरी की आगे की प्रक्रिया पूरी करने जा रही थी। लेकिन उसी समय कुछ गुंडों ने ट्रेन में अरुणिमा के साथ लूटपाट करके उसको ट्रेन की पटरी पर फेंक दिया और जब तक अरुणिमा उठ पाती तब तक एक ट्रेन उनके ऊपर से गुजर गई।
बेहोश अरुणिमा को जब अस्पताल में होश आया तो उन्होंने देखा कि उनकी एक टांग नहीं रही। वहीं उसके साथ साथ उन रिश्तेदारों को भी देख रही थी जो उस अस्पताल में खड़े होकर कह रहे थे कि इस एक टांग वाली लड़की से कौन शादी करेगा। जिस घर में सरकारी नौकरी लगने की खुशियां थीं वहां पर एक अलग तरह का सन्नाटा छा गया। अरुणिमा ने मन में ठान लिया था कि उसको इन रिश्तेदारों का मुंह बंद करना है। उसने उसी दिन निर्णय लिया कि वह सबसे ऊंचे पर्वतों में से एक माउंट एवरेस्ट को चढ़ेगी।
शुरू शुरू में लोगों ने अरुणिमा का बहुत मजाक बनाया। लेकिन अरुणिमा को अपने ऊपर अटूट विश्वास था और इसी विश्वास के कारण वह ना तो रुकी ना थकी और ना ही किसी परिस्थिति से दबी।
जहां ऐसे मरीजों को सही होने में कई साल लग जाते हैं वही अरुणिमा कुछ ही दिनों में चलने लगी। उसके बाद उन्होंने उत्तरकाशी में एक संस्थान ज्वाइन करके पहाड़ चढ़ने की ट्रेनिंग ली। इस ट्रेनिंग के दौरान अरुणिमा को ढेर सारी दिक्क्तों का सामना करना पड़ा। कभी – कभी तो उनका आर्टिफिशियल लेग उनसे दूर हट जाता था। उनकी सांस फूलने लगती थी और कभी – कभी तो उनको इतनी ऊंचाई से कूदना पढ़ता था कि लगता था कि अब शायद उनके प्राण भी बाकी नहीं रहेंगे।
लेकिन उस लड़की ने यह ठान लिया था कि उसको हर हालत में लोगों को प्रतिकूल उत्तर देना ही देना है। और अंतत; एक दिन ऐसा आया जब अरुणिमा 52 दिनों के लंबे संघर्ष के बाद माउंट एवरेस्ट की चोटी पर तिरंगा झंडा फहरा पाई।
उन्होंने माउंट एवरेस्ट पर खड़े होकर चीखकर कहा की मैं यहां पर खड़े होकर उन लोगों को जवाब देना चाहती हूं जो समझते हैं कि एक अपाहिज लड़की जीवन में कुछ नहीं कर सकती।
सोचिए जब अरुणिमा की एक टांग चली गई तब भी उसने हार नहीं मानी तो हम तो ईश्वर की कृपा से पूरी तरह से सही हैं। दअरसल विकलागंता शरीर के अंगो से नहीं हमारे मन से होती है।
अगर हमारा मन उत्साह से भरा हुआ है तो हम कोई अंग कम होने पर भी अपने लक्ष्य को हासिल कर लेंगे लेकिन अगर हमारा मन ही विकलांग है तो हमारे शरीर के सारे अंग सही होने पर भी हम कभी भी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएंगे। हमें प्रेरणा लेनी चाहिए अरुणिमा सिन्हा से कि चाहे कैसी भी परिस्थिति हो हमारे मन का संकल्प इतना दृढ हो कि हम अपने लक्ष्य तक पहुंच कर ही रहें।
वास्तविक घटना से प्रेरित यह कहानी — ‘अरुणिमा से सीखो” लेखक राजिंदर चोपड़ा के द्वारा लिखित पुस्तक उत्साह से ली गई है।