साहित्यक रचनाएँ ; कूड़ा


सम्पादक जी
आपने मेरी रचनाओं को

कूड़े की सज्ञां देकर
लौटाई नहीं

और समर्पित किए उन्हें
कूड़ेदानी को।

बहुत बहुत धन्यवाद।
मेरे विचारों के दर्पण पर

जमे हुए कूड़ो को
आपने समेट लिया

और इसे बना दिया निर्मल।
पर क्या आप रोक पायेंगे ?

उन बदबूदार गलियों की सड़न
जहाँ मैं पला हूँ।

बड़ा हुआ हूँ।
शिक्षा पाई है

और चोट खाई है।
जहाँ न कभी फूल खिले हैं।

कांटे ही कांटे जहाँ राह पर मिले हैं
फूलों की तथाकथित सुगंध

मैंने पाई कहाँ ?
और उनकी बदबू से

मैं हो जाऊं
शायद बेहोश।

आप तो हैं केवल
सुगंधो के रसिया।

दुर्गन्ध की सुगंध का
मैं हूँ मनवसिया।

और न इतना बेईकान हूँ
न ही हिम्मतवान हूँ –

कि कभी कभार देखे गए
दूसरों की क्यारी के

प्यारे प्यारे फूलों की
खुशबू को भीचकर

सांसो में खींचकर
पहुँचा दूँ आपको।

खेद है कि फिर
इस मन – दर्पण पर

धूल – घन जमेंगे।
कूड़े पड़ेंगे।

फिर इन्हें समेट कर
अर्पण करुँगा

आपकी ही सेवा में।
इसी तरह आप भी

अपनी कूड़ेदानी में
इन्हें समेटते जाना।

मेरे मन – दर्पण को
निर्मल बनाना।

उपरोक्त साहित्यिक रचनाएँ स्वर्गीय बी एन झा द्वारा लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है ।