कहानी ; कौन सोचेगा ?

आशुतोष बाबू बहुत गम्भीर मुद्रा में अपने ड्राईगरूम की कुर्सी पर बैठे थे। मैं जाकर उनके सामने बैठ गया। लेकिन वे इतने गम्भीर चिंतन में थे कि मेरी ओर उनकी नजर भी नहीं उठी। कुछ क्षण के बाद प्रकृतिस्थ होकर मेरी ओर देखा। मैंने पूछा इतनी गम्भीर मुद्रा क्या बात है ? आशुतोष बाबू ने जवाब दिया कि – इधर हाल मे मैं , एक दफ्तर में आयोजित कर्मचारियों की सभा में गया हुआ था। वहाँ केन्द्रीय सरकार की नयी आर्थिक एवं औद्योगिक नीति एवं राज्य सरकार की मजदूर कर्मचारी विरोधी नीति के सबंध में बोल रहा था। मैं समझाने की कोशिश कर रहा था कि किस तरह इन नीतियों के चलते हिन्दुस्तान में मजदूरों की छंटनी हो रही है ; बड़े – बड़े राजकीय औद्योगिक संस्थान को निजी हाथ में बेचा जा रहा है। अंतराष्टीय मुद्रा कोष के सकेत पर आर्थिक नीतियाँ बनी हैं जो जन एवं मजदूर विरोधी है।

डकल प्रस्ताव के तहत भारत के कृषि उद्योग को गिरी रखने की शुरुआत है। लब्बो लुआब यह कि भारत को अमेरिका के हाथों बेच देने की साजिश चल रही है। अभी इन तथ्यों को उदाहरण – दर – उदहारण बयान कर ही रहा था कि सभा के बीच से एक आवाज आयी। ,,,, छोड़िये इन बातों को पहले यह बताइये कि डी. ए कब मिल रहा है। ,,,एक उदंड नौजवान कर्मचारी की आवाज थी।

पहले तो भाषण में व्यवधान से घबड़ा गया फिर पलट कर जवाब दिया – दोस्तों। डी. ए. भत्ते की लड़ाई अब गौण हो गयी है। अब अपनी – अपनी नौकरी बचाइये। ,, यह कह कर मैं फिर शुरू हो गया। केन्द्र सरकार की नीतियों के साथ ही साथ बिहार सरकार की नीतियों को उजागर करने लगा। तबतक फिर एक आवाज उछली – बरगलाइये दूसरों को , 11 वर्ष की मेरी नौकरी है। स्थायी भी हो चुका हूँ , किस साले की मजाल है जो मेरी नौकरी ले लें। ,,,

उस आवाज को अनसुनी करते हुए मैं बोलता रहा। तबतक फिर आवाज आयी ,,, ये केवल ———- उलूल जलूल बातें करते हैं। असली बातें करते ही नहीं। अभी डी. ए. की बातें होनी चाहिये और बातें कर रहे है छंटनी की। ,,, यह कहते हुए सभा छोड़कर चला गया। मैं अपने को छंटनी पर केन्द्रित करते हुये राज्य सरकार की नीति को स्पष्ट करते हुए बातें समाप्त की।
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इस घटना के घटे पाँच – छ ; महीने बीत गये। मैं भी इस घटना को भूल चुका था। महांसघ के निर्णयानुसार ,,, पटना चलो ,,,, रैली हुई। एकाएक मेरी नजर उस व्यक्ति पर पड़ी जो बैनर लिये आगे – आगे चल रहा था। मुझे आश्चर्य हुआ। मेरी आँखों के सामने पाँच छ; महीने पहले वाली घटना कौंध गयी। मैं मंच से उतर कर उसके पास गया। मुझे देखकर ही पहले तो वह झेंपा लेकिन उसके पीठ पर मेरे हाथ रखते ही सहज हो गया।

मैंने उसे प्रदर्शन में शामिल होने पर बधाई देते हुई हाल – चाल पूछा। बड़े उदास स्वर में उसने जवाब दिया कि मेरी भी छंटनी हो गयी है। मैं चौंका – तुम्हारी नौकरी के तो 12 साल हो गये थे। उसने सिर हिला दिया। ,,,

यह कहते हुए आशुतोष बाबू ने कहा कि पढ़े लिखे कर्मचारी जब अपने हित की बात नहीं सोच पा रहे है तो आनेवाले दिनों में जब बहुत कठिन दिन होंगे तब जनता का क्या होगा ?

इसी सोच में मैं परेशान हूँ इतना कहकर आशुतोष बाबू चुप हो गये। मैं उनका मुँह देखता रह गया।

उपयुक्त स्तम्भ परत दर परत पुस्तक स्वर्गीय सिद्वेश्वर नाथ पांडेय की पुस्तक से ली गई है।