मस्जिद का जोरदार अजान हो
या मंदिर की साधना का मौन
तुम्हीं तो कहते हो
छाती फुलाकर
रास्ते हैं अलग – अलग
मंजिल एक है।
तो क्यों पपीहरे की
पी कहाँ पी कहाँ , मे
निर्लज्जता की जीती मूर्ति
दिखाई देती है तुम्हें
और कोयल की कूक में
दर्द सहती लज्जामई नारी की
गरिमा प्रतिबिंबित होती है।
कोयल या पपीहरे ने
अपने कमेंट्स देने
तुम्हें आमंत्रित तो नहीं किया।
मान लो किया भी हो
तो कोयल की आह ने
क्या रिश्वत दिया कि –
उसे तुमने उठा दिया।
पपीहरे को गिरा दिया।
गरिमा की परिभाषा करने वाले
कौन हो तुम ?
पी कहाँ , कहने वाली
पहले मौन खींचती है साँसो में
फिर शब्द फेंकती है बाहर।
कुहककर हूक भरने वाली
मौन फेंकती है बाहर।
शब्द भींचती है अन्दर।
दर्द जीती हैं दोनों ,
समरस ;
तुम्हें लगती होगी
पी कहाँ बेताबी
हाँ , है यह बेताबी।
पर ये बताओ
बेताबी निम्न कब से हुई ?
बेताबी तुमने भी भोगा है।
खूब भोगा है।
पर जो आम है
वह तुम्हारी लीपि में
साहित्य नहीं है।
और जो साहित्य नहीं है
उसे उच्च होने का अधिकार नहीं
बेताबी को तौलो
सहनशीलता के बराबर है।
जरा गौर से देखो
सहनशीलता की जुड़वाँ है।
दर्द खीचों या फेंको
हवा कम ज्यादा नहीं होती।
फेफड़ा अभी इतना
बेईमान नहीं हुआ है।
इसलिए अपने अंदर
ईमानदारों को रखता है।
फेफड़े में दिल है
दिल में दर्द है
दर्द में जीवन है।
और दर्द है जातिहीन
गोत्रहीन
धर्महीन
रंगहीन
शब्दहीन
पी कहाँ या कुकू तो
दर्द के परिणाम हैं।
परिणाम पकड़ोगे तो
उसे नहीं देखोगे।
निपट अकेला है
वह ईमानदार।
दर्द बस दर्द है।
तो चाहे अजान हो
या चाहे मौन होवो
मिलता वही है समरस
फिर , पपीहा चिहुँक उठे
या कोयल कुहुक उठे
होता वही है
वही होता है
एकरस ,
वही होता है एकरस , ।
उपरोक्त साहित्यिक व्यंग स्वर्गीय बी एन झा द्वारा लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है ।
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