जब एक लड़की ब्याह कर
दूसरे घर की बहू और किसी की
जीवनसंगिनी बनती है
सब कुछ समर्पण कर देती हैं
उसे सुख की चाह कम
अपने पति और पति के घरवालों
की परवाह अधिक होती है।
यद्यपि उसकी आँखों में स्वप्न तैरते हैं
उसे अपने बाबुल के घर का प्यार याद आता है।
भाई – बहन के संग मुस्कराना
खिलखिलाना याद आता है
वो चाहती है कि उसे यहाँ भी
बाबुल के घर जितना न सही
थोड़ा – सा प्यार मिले
उसके संजोए सपने खिले —
वह अपना तन – मन कर देती है अर्पण
उसे नहीं होती कोई अभिलाषा
थोड़ी सी प्रेम की रहती है आशा
पर इस थोड़ी सी आशा के बदले
जब मिलती है निराशा
नहीं मिलता है उसे सम्मान
कभी – कभी उसका होता अपमान
किसी को न दिखता उसका त्याग एवं बलिदान —–
तब वो तिल – तिल कर मरने लगती है
कभी तो मन करता करने को विद्रोह
पर अक्सर वो सहन करने लगती है
वो नहीं कर पाती है प्रतिकार
हाँ , उसे मिलता है दुत्कार
उसका ह्रदय करता है चीत्कार
उसे याद आता है बाबुल का घर
माँ और बापू का वो अनमोल प्यार —
– लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
लेखन विधाएँ -कविता , कहानी , लघुकथा , आलेख , समीक्षा