ठढ़ी हवा का एक झोंका
मेरी खुली खिड़की से
एकाएक आता है।
नींद से जगाता है।
जख्मों को कुरेद जाता है ।
या फिर सहलाता है।
बस यही अन्तर मैं,
समझ नहीं पाता हूँ।
इसी वास्ते उससे
बतियाना चाहता हूँ
एकान्त मे।
इसलिए खिड़की को
बंद करने के लिए
आँखे मींचते हुए
हाथ बढ़ाता हूँ।
पर इसी बीच
गोरैया की भाँति
वह फुर्र हो जाता है।
जाते जाते बस
मुझे इतना बताता है।
अन्तर समझने मे
जल्दवाजी मत करो
उत्तर गलत होगा।
न होवो अधीर
हुई देर , मुझे जाने दो।
इसी रास्ते मुझे
जनम जनम आने दो।
उपयुक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।