बेनकाब

चेहरे पर नाकाब ओढ़े
चले जा रहे हो
बेखबर अभागा ,
नकाब काला होना चाहिए
पर ये जो तुमने पहन रखा है
मृग – मरीचिका है।
तुम्हें भ्रम होता है
होने का।
पर ये नहीं है।
पारदर्शी होना
न होने से बुरा है।
पागल ,
बेनकाब क्यों नहीं हो जाते?
सत्य अवतरित होगा।
ये बात अलग है ,
वो सत्य तुम्हें
काल के गाल मे
ढकेल देगा।
पर क्या हुआ ?
तुम मृत्यु से
अलग कब हुए ?

उपयुक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।