सच्चा नृत्य , सुन्दर संगीत

शब्दों के पैरो मे निर्भय नृत्य करते ,
बाँधकर घुँघरू देखा है जब से।
नृत्य का आनन्द लेते हो घुँघरू की झन झन व।
शब्दों के ही होठों पर पायल की छम छम।
लयबद्धता देकर भूल गया हूँ।
संगीत का रसास्वादन वनों के वृक्षों की।
करते हो तुम। डालियों व पत्तियों का।
शब्द नृत्य नहीं है स्पन्दन सुना है जबसे।
और न ही महफिलों के संगीत।
गीत है यह। अर्थहीन हो गए है।
नृत्य व गीत अभिनय विहीन।
कुरूप नहीं है थिरकता निशब्द नृत्य ।
शब्दों का मेकअप विस्मरणातीत है।
व्यर्थ है उनके मौन के साज पर।
दीपित चेहरे पर लहराता सप्तसुर ही।
अभ्यारन्य के पशुओ को सच्चा संगीत है।

उपयुक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।