प्रेम और समाज

प्रेम और समाज।
जैसे कुआँ और रस्सी।
कुएं की सिला की तरह
अड़ा हुआ
दृढ़ समाज
अटूट है
आज तक।
प्रेम की तीष्णता को
कुंद किया है सर्दियों से।
सफल हुआ है प्राय वह ,
और प्रेम की पतली रस्सी
उसके बंदन पर
अनवरत आते जाते
अनेकों निशान
बना गई है।
पर इतने सारे घाव लिए
यह संगदिल समाज
अपनी इस बदसूरती पर
शर्मिंदा होने के बजाय
अस्सी घाव वाले
राणा साँगा बना हुआ
युद्धरत है।

उपयुक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।