जिन्दा लाश

जिन्दा हूँ क्या चलती हुई एक लाश, ही समझो।
दिन गिन रहा हूँ अब क़ज़ा के पास ही समझो।
की बेवफाई, किसने नाम उनका न पूछो।
वो ग़ैर नहीं कोई अपना, खास ही समझो।
दिन गिन रहा हूँ, अब कजा के पास ही समझो।
मुझको, ग़मे -फ़िराक ने तोड़ा है इस कदर।
खुशियाँ कहाँ ? अपने को गम, का दास ही समझो।
दिन गिन रहा हूँ, अब क़ज़ा के पास ही, समझो।
सांसो मे कैसे, ब्रू – ए जुल्फ उनकी समाए ?
अब टूटने को जाती हुई, साँस ही समझो।
दिन गिन रहा हूँ ,अब क़ज़ा के पास ही समझो।

उपयुक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।