निषेध की शिक्षा
अमित तिवारी
शिक्षा जीवन की धुरी है। मनुष्य को जीवन जीने की कला शिक्षा से ही मिलती है। इस संदर्भ में हमें यह भी समझना होगा कि शिक्षा का अर्थ केवल पुस्तकों में पढ़ाए गए पाठ नहीं हैं। वस्तुत: जीवन में हर क्षण हमें कहीं न कहीं से शिक्षा मिल सकती है, मिलती भी है।
बच्चों के संस्कार और स्वभाव भी शिक्षा से ही गढ़े जाते हैं। ऐसे में एक प्रश्न है, जिसका सामना वर्तमान समय में लगभग ज्यादातर माता-पिता कर रहे हैं, वह है बच्चों का गलत दिशा में चले जाना। बहुत से माता-पिता के मन में आता है कि परिवार में किसी भी अन्य सदस्य में कोई व्यसन न होते हुए भी बच्चा किसी व्यसन में क्यों पड़ गया? परिवार में लगभग सभी में सही आदतों के होते हुए भी नई पीढ़ी क्यों गलत आदतों की चपेट में आ रही है?
अधिकतर माता-पिता यह नहीं समझ पाते हैं कि आखिर बच्चों को सीख देने में गलती कहां हो जाती है। माता-पिता के दृष्टिकोण से देखें तो यह बात व्यथित करने वाली है कि आखिर उनके प्रयासों में और बच्चे की शिक्षा में कमी कहां रह गई? यहां तक कि समय-समय पर बच्चों को बुरी आदतों से बचने की सीख देने पर भी उनमें अच्छी आदतें क्यों नहीं आ पाती हैं, यह प्रश्न प्राय: सबको व्यथित रखता है। इस प्रश्न का समाधान भी इसी प्रश्न में छिपा है।
कैसे?
‘… बच्चों को बुरी आदतों से बचने की सीख’ आपके प्रश्न के इस हिस्से में समाधान छिपा है। वास्तव में हम बच्चों को मात्र बुरी आदतों से बचने की सीख देते हैं। इसे निषेधात्मक सकारात्मकता कहा जा सकता है। अर्थात हम उसे अच्छा तो बनाना चाहते हैं, लेकिन निषेध के वाक्यों के माध्यम से। हमारा पूरा प्रयास बच्चों को यह बताने पर ही रहता है कि उसे क्या नहीं करना चाहिए। हर अच्छाई में एक निषेध होता है। झूठ मत बोलो, गाली मत दो, सिगरेट मत पीना, ये मत करना, वो मत करना… और भी न जाने क्या-क्या…।
अच्छी सीख देने का यह सबसे गलत तरीका है। वास्तव में ऐसे निषेध के वाक्यों से बनी अच्छाई के फेर में हम बच्चों को मात्र बुरी आदतों का ही विकल्प दे रहे होते हैं। हम उसे यह तो बताते हैं कि क्या नहीं करना चाहिए, लेकिन यह बताने का प्रयास नहीं करते हैं कि क्या करना चाहिए। अंतत: बच्चा नहीं अपनाई जाने वाली आदतों में से ही किसी को अपनाकर देखता है।
कुछ वर्ष पहले तक स्कूली पढ़ाई में नैतिक शिक्षा का विषय रहता था, जिसमें बच्चों को कुछ कहानियों के माध्यम से यह पता चलता था कि अच्छा होने के लिए क्या करना चाहिए। लेकिन जैसे-जैसे शिक्षा का व्यवसायीकरण होता जा रहा है, वैसे-वैसे स्कूली पढ़ाई का उद्देश्य बच्चे को बुद्धिमान बनाना ही रह गया है। बुद्धिमान होने से यह निश्चित नहीं है कि बच्चा सच्चरित्र और संस्कारी भी होगा।
प्रश्न है कि हमें करना क्या चाहिए?
- बच्चों को मात्र यह बताने से बचिए कि उसे क्या नहीं करना चाहिए, बल्कि उसे यह बताइए कि अच्छा होने के लिए क्या करना चाहिए।
- झूठ मत बोलो कहने से अच्छा है कि उसे सच बोलने की महत्ता समझाइए।
- गाली न देने की सीख से अच्छा है कि उसे सम्मानपूर्वक बोलने का गुण सिखाइए।
- क्रोध न करने के स्थान पर उसे मधुर बोलने का महत्व समझाइए।
- उसे ऐसी कहानियां सुनाइए जिनमें एक उत्तम जीवन जीने की कला हो। उसे माता-पिता व अन्य बड़ों के सम्मान का महत्व समझाइए।
सबसे बड़ी बात, उसे अपने व्यवहार से यह दिखाइए कि उसे क्या करना चाहिए। जिस दिन बच्चे को यह समझ आ जाएगा कि करना क्या चाहिए, उसका जीवन स्वत: ही उत्तम हो जाएगा।
(समाधान है… कॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिए… क्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)