सुप्त मेरी बाँसुरी रह जाएगी

ग़ज़ल

एक घड़ी ना एक घड़ी  रह जाएगी।
प्रीत जिसकी सहचरी रह जाएगी , ।

गर न छुआ ये हवा फूलों को तू
इनमे ये खुशबू पड़ी रह जाएगी।

कोई ग्राहक गर न मिल पाए तुझे
दिल मे ये उल्फत धरी रह जाएगी।

हाथ गर नाक़ामयावी ना लगे
कामयाबी बस खड़ी रह जाएगी।

तान छाती शान से जी ले अगर
मौत भी तुजसे डरी रह जाएगी।
आ लगा दें चोट पर मरहम जरा
वरना ये यूँ ही हरी रह जाएगी।

प्राण ले पर छीन मत आवाज़ को
सुप्त मेरी बाँसुरी रह जाएगी

उपर्युक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।