मर्ज़

 

ये चाँद ये सूरज ये जो तारे है बेशुमार
दिखते मुझे रोगी से क्योकि आप है बीमार

जब से हुआ असल मे आपको जिगर का मर्ज़
अब शायरी के दर्द – जिगर से न रहा प्यार

ऐसा नहीं कि मैं खुदा को याद न करता
यादें मगर अब उनकी आ रही है लगातार

बस आज मे जीने की अब आदत पड़ी मुझे
जो होगा जो हुआ न कोई उससे सरोकार

बस एक बात कल के लिए सोचता फिर भी
शायद खुदा की ओर से हो जाय चमत्कार

पहले भी हुए आप जो बीमार मैं तड़पा
अब रोज भय से काँप मैं जाता हूँ कई बार

सच। लाइलाज आपके इस मर्ज़ ने मुझे
पहुँचाया रूह मे करा दिया है देह पार

उपर्युक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।