प्यार अब व्यापार बनता जा रहा है।
आदमी बीमार बनता जा रहा है ।
किश्तियाँ कैसे किनारे लग सकेगी ?
सिंधु खुद मझधार बनता जा रहा है।
दोस्त मेरा एक भी क्या हो सकेगा ?
व्यक्ति जब बाजार बनता जा रहा है ।
नींद से डर इसलिए लगने लगा है
स्वप्न्न कारागार बनता जा रहा है।
है कहाँ मिट्टी ? जहाँ इन्सान होगा
धर्म दावेदार बनता जा रहा है ।
लूट लेता था सरे बाजार मे जो
आज पहरेदार बनता जा रहा है।
नींद इतना पीड़ का जो भर चुका है
आँख का यह भार बनता जा रहा है ।
भूख की आदत पड़ी उपवास अब तो
मगन हो त्योहार बनता जा रहा है ।
छू रहे है किस तरह आकाश दुर्जन ?
आज धन आधार बनता जा रहा है ।
पूछता कोई नहीं है बुद्धि को अब
बल बड़ा दमदार बनता जा रहा है।
उपर्युक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।