मैं पुरुष हूं!
मैं महाभारत का साक्षी बना ‘समय’ तो नहीं हूं, परंतु मेरी स्थिति उससे बहुत अलग भी नहीं है। समय मात्र साक्षी होता है, परंतु उसका चित्रण केवल समय के रूप में नहीं, अपितु अच्छे या बुरे समय के रूप में किया जाता है। ऐसी ही कुछ स्थिति पुरुष की भी है।
जैसे समय ने ‘मैं समय हूं’ की हुंकार के साथ अपने अस्तित्व का आभास कराया था, ‘मैं पुरुष हूं’ की इस हुंकार के साथ मेरा भी वही प्रयास है।
मेरे इस हुंकार को सुनते ही इसके अर्थ की विवेचना होने लगेगी। इसके कई अर्थ निकाले जाएंगे। कुछ लोगों के लिए यह एक गर्वोक्ति हो सकती है, तो कुछ लोग इसे दंभयुक्त उक्ति भी कहेंगे। एक वर्ग पुरुष शब्द को स्त्री शब्द का विलोम मानते हुए इसे लैंगिक भेदभाव से भरी उक्ति भी कह सकता है।
हालांकि मेरे मन में इनमें से कोई भाव नहीं है। यह मात्र एक सहज स्वीकारोक्ति है एक पुरुष के होने की। साथ ही एक अपेक्षा है इसे जस का तस स्वीकार कर लिए जाने की। यह प्रयास है एक पुरुष की तरफ से समाज से संवाद करने का। यह बताने का कि मेरा अस्तित्व कहानियों के नायक और खलनायक चरित्रों के अतिरिक्त भी है। मैं न तो मात्र वह खलनायक हूं जो किसी फिल्म में जूते पॉलिश कर रहे बच्चे के सामने सिक्के फेंकता है और न ही मात्र वह महानायक हूं जो फेंके हुए सिक्के नहीं उठाता है। इन दोनों ही चरित्रों के बीच पूरा का पूरा मैं सिमटा हुआ हूं, जो न तो सिक्के फेंकना जानता है और न ही फेंके हुए सिक्के न उठाने जैसी दृढ़ता दिखा पाता है। यह हुंकार भी सिर्फ मेरी है।
कविताओं-कहानियों का छूट गया भाग हूं मैं
अगर मैं कहूं कि समाज और साहित्य की दृष्टि कभी मुझ पर पड़ी ही नहीं, तो शायद यह अतिशयोक्ति लगे। परंतु सच यही है। कहानियां नायकों और खलनायकों के लिए लिखी जाती हैं। कभी नायक और खलनायक को देखने की इस दृष्टि को समाज की दृष्टि के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तो कभी किसी स्त्री की दृष्टि से चित्रण किया जाता है। इन दोनों ही स्थितियों में मैं हमेशा छूट जाता हूं। मैं सदैव कहानी का वह हिस्सा बना रह जाता हूं, जिसे लिखा ही नहीं जाता या जिसे लिखे जाने में कोई आकर्षण नहीं होता।
कहीं पढ़ा था कि बेटियों को पिता के गले लगने के लिए अपनी विदाई तक की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। परंतु मैं तो वह बेटा हूं जिसके लिए पिता को गले लगाना शायद संसार का सबसे जटिल काम है और जिसे मैं कभी नहीं कर पाता। लेकिन, मैं कविताओं का भाग नहीं बन पाता हूं क्योंकि मुझमें न तो वह सौंदर्य है जो कविताओं का अलंकार बन पाए और न ही मेरे पास वे आंसू हैं, जो कवियों की आंख में पानी ला पाएं। यह रूखापन उन लिखी हुई कविताओं में भी दिख जाता है, जहां बेटी की प्रतीक्षा तो लिखी जाती है, लेकिन उस पिता की प्रतीक्षा में आकर्षण नहीं दिखता। मैं वहां भी ठगा सा रह जाता हूं, जहां मेरा नाम लिखा जाता है। वस्तुत: मैं वही पुरुष हूं, जो कविताओं का सौंदर्य निखारने के लिए मात्र संबल की तरह प्रयोग किया जाता हूं।
मर्द को भी दर्द होता है
कहानियों-कविताओं ने न केवल मेरे हिस्से की अनदेखी कर दी, बल्कि मुझसे सहज होने के अधिकार भी छीन लिए गए। एक महानायक ने आकर कह दिया कि ‘जो मर्द होता है उसे दर्द नहीं होता मेमसाब’ और बस मुझसे हर दर्द को पी जाने की अपेक्षा की जाने लगी। कवियों ने कह दिया कि आंसू तो स्त्री का आभूषण हैं, तो फिर भला मैं एक पुरुष होकर उनके आभूषण कैसे धारण कर सकता हूं। और इस तरह, मुझसे जी भर रो लेने का अधिकार भी छीन लिया गया। मुझसे नरमी की हर भावना छीनकर मुझे ही सख्त होने का तमगा पहना दिया गया।
आज मेरी इस स्वीकारोक्ति का उद्देश्य यह बताना है कि मुझे दर्द होता है। मेरी आंखों में भी आंसू हैं और कभी-कभी मुझे भी एक कंधे की जरूरत होती है, जिस पर सिर रखकर मैं जी भरकर रो सकूं। मैं वह महानायक नहीं हूं जिसे दर्द नहीं होता। न मैं यह स्वीकार करना चाहता हूं कि आंसू मात्र स्त्री का आभूषण हैं। यह झूठ है कि पुरुष को घोर वियोग में भी स्वयं को दृढ़ रखना चाहिए।
मैंने उन प्रभु श्रीराम को देखा है, जो हरण के बाद माता सीता के वियोग में विलाप कर रहे थे। वह योद्धा जिसने एक बाण से ताड़का का वध कर दिया और न जाने कितने राक्षसों का संहार कर दिया, वह योद्धा भी अपनी प्राणप्रिया के वियोग में बिलखता है। वह बावले से होकर खग, मृग और पुष्पों से माता सीता का पता पूछते हैं। यदि वह एक नायक होकर अपने भावों को इतना खुलकर व्यक्त कर सकते हैं, तो फिर मैं क्यों नहीं।
मैंने तो देवाधिदेव शिव को भी देखा है। सती के वियोग में शिव को बिलखते किसने नहीं देखा। वह तो वियोग में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट कर देने को तत्पर हो उठे थे। यह सत्य है कि पुरुष के रूप में मुझे कई तरह की भूमिकाएं निभानी हैं। मैं उन सब भूमिकाओं के लिए सहर्ष तैयार हूं, किंतु मुझे बस सहज मानव होने का अधिकार चाहिए। पंचभूतों में प्राण डालने से बना वही मानव जिसमें सभी भावनाएं हैं। मैं स्थित प्रज्ञ होने का महत्व समझता हूं, परंतु यह भी तो सही नहीं कि यदि मैं स्थित प्रज्ञ न हो पाया तो कमजोर कह दिया जाऊं।
प्रतिस्पर्धी नहीं पूरक हूं मैं
यह विषय मेरी आपत्ति का सबसे गंभीर विषय है। सृष्टि में स्त्री और पुरुष दो तत्वों का होना ही संतुलन है। यही कारण है कि उस परब्रह्म ने अपने हर स्वरूप के साथ उस संतुलन को स्थापित किया। वह शिव रूप में शिवा के संग हैं, तो राम रूप में सिया के। दोनों ही तत्व एक-दूसरे के पूरक के रूप में हैं, जो मिलकर सृष्टि के निर्माण में सहायक होते हैं। अर्धनारीश्वर स्वरूप तो इसे नई ऊंचाई पर ले जाता है, जिसमें यह निश्चित कर पाना भी संभव नहीं कि शिव के अर्ध भाग में शिवा हैं या शिवा के अर्ध भाग में शिव हैं। बस निष्कर्ष इतना ही निकलता है कि दोनों एक-दूसरे के प्रति अपूर्ण हैं।
परंतु, समय के साथ स्थितियां बदलती चली गईं और मुझे पूरक से प्रतिस्पर्धी बना दिया गया। लोगों की रूचि भले ही नायक की कहानियां सुनने में हो, लेकिन व्यापकता में मेरा चित्रण खलनायक के रूप में किया जाने लगा है। यह सत्य है कि मैं सदा राम नहीं हो सकता, परंतु यह भी तो उतना ही सत्य है कि मैं सदा रावण भी नहीं हूं। यदि एक अच्छे उदाहरण के आधार पर हर पुरुष को नायक नहीं माना जा सकता तो, एक गलत उदाहरण पर हर पुरुष को खलनायक कह देना भी तो सही नहीं है। समाज को इस अवधारणा को तोड़ने की आवश्यकता है कि पुरुष स्त्री के लिए या स्त्री पुरुष के लिए प्रतिस्पर्धी है। मेरी किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं है। मैं बस पूरक बनकर जीना चाहता हूं। मैं इस सत्य को स्वीकारने का आग्रह करता हूं कि मेरे हर रूप में मुझे किसी भी अन्य के उदाहरण के आधार पर रेखांकित न किया जाए। यह सृष्टि संतुलन चाहती हैं और उसी संतुलन की इच्छा मुझे भी है।
इन तथ्यों पर भी बात जरूरी
मैं शायद ‘समय’ की तरह मुखर नहीं हो पाया हूं। इसलिए अपनी ही बात कहने के लिए मुझे अब तक इतने उदाहरण और संबल की आवश्यकता पड़ गई। शायद एक पुरुष की व्यथा यही है। वह सीधे और सपाट शब्दों में स्वयं का पक्ष भी नहीं रख पाता है। अंग्रेजी में एक शब्द है, पॉलिटिकली करेक्ट। एक पुरुष को हमेशा पॉलिटिकली करेक्ट होना पड़ता है। जितने क्रूर शब्दों में मुझे खलनायक कह दिया जाता है, मेरे लिए उतने स्पष्ट शब्दों का प्रयोग कर पाना संभव नहीं है।
हालांकि मैं आज इस हुंकार के बहाने चाहता हूं कि स्वयं से जुड़े कुछ तथ्यों को सबके सामने रखूं। मैं कुछ मामलों में दृढ़ हूं, प्रकृति ने कुछ विषयों में मुझे स्त्री से अलग बनाया है। लेकिन यह अलग होना दोनों ही पक्षों के लिए एक सा है। जैसे पुरुष कुछ बातों में स्त्री से अलग है, उसी प्रकार स्त्री कुछ बातों में पुरुष से अलग है। प्रकृति के न्याय में इस अलग होने से कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। शरीर एवं भावना दोनों ही स्तर पर अंतत: प्रकृति ने दोनों को बराबर ही कर दिया है। इस संबंध में कुछ तथ्यों को जानना होगा:
– विज्ञान पत्रिका लैंसेट के एक अध्ययन के अनुसार, बीमारियों का दबाव पुरुषों पर ज्यादा रहता है। असमय मृत्यु का शिकार भी पुरुष ज्यादा होते हैं।
– इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि डिजीज बर्डन (बीमारियों के कारण ज्यादा परेशानी होने) का मामला पुरुषों में ज्यादा रहता है। शीर्ष 20 बीमारियों में से 13 के मामले में पुरुषों में ज्यादा खतरा देखा गया।
– अध्ययन में पाया गया कि कोरोना महामारी के दौरान महिलाओं की तुलना में पुरुषों को 45 प्रतिशत अधिक स्वास्थ्य संबंधी नुकसान उठाना पड़ा था।
– अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच) के अधीन नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन ने एक शोध में पाया कि पुरुषों में दिल की बीमारियों, स्ट्रोक और डायबिटीज का खतरा ज्यादा रहता है, जबकि महिलाओं में आर्थराइटिस एवं डिप्रेशन की आशंका ज्यादा होती है।
– इसमें यह भी पाया गया कि ज्यादातर देशों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं में दिल की बीमारियों का खतरा 27 प्रतिशत तक कम होता है।
– इस शोध में निष्कर्ष के तौर पर बताया गया कि जानलेवा बीमारियों का ज्यादा खतरा पुरुषों में होता है। इसीलिए बीमारियों के कारण असमय मौत की आशंका पुरुषों में अपेक्षाकृत ज्यादा रहती है।
– हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के अंतर्गत हार्वर्ड हेल्थ पब्लिशिंग के लेख में बताया गया था कि अमेरिका में महिलाओं की तुलना में पुरुषों की जीवन प्रत्याशा पांच साल तक कम है।
– वैश्विक स्तर पर पुरुषों में ज्यादा बीमारी और असमय मौत में बड़ी भूमिका समाज के स्तर पर उन्हें मिलने वाले तनाव की भी रहती है। काम का तनाव और किसी से सहयोग न मिल पाने से भी पुरुषों में खतरा बढ़ जाता है।
– सच तो यह है कि जिन हार्मोन्स और क्रोमोसोम आदि के आधार पर पुरुष शारीरिक रूप से कुछ बलिष्ठ बनता और दिखता है, वही उसे कमजोर भी कर देते हैं। हार्वर्ड हेल्थ पब्लिशिंग के लेख में ही बताया गया है कि पुरुषों में पाया जाने वाला ‘वाई’ क्रोमोसोम ‘एक्स’ क्रोमोसोम की तुलना में तिहाई होता है और उसमें कम जीन होते हैं। जीन का यही फर्क पुरुषों में बीमारियों के कारण असमय मौत का खतरा बढ़ा देता है।
– इसी तरह पुरुषों में पाया जाने वाला टेस्टोस्टेरोन हार्मोन दिल की बीमारियों का खतरा बढ़ाता है। वहीं, महिलाओं का एस्ट्रोजन हार्मोन उन्हें दिल की बीमारियों से बचाता है।
ऐसे और भी कई तथ्य हैं। इन तथ्यों को यहां रखने का उद्देश्य बस यही बताना है कि पुरुष यानी मैं शारीरिक रूप से थोड़ा सुदृढ़ हूं, तो बस इसलिए क्योंकि प्रकृति ने मेरे लिए कार्य एवं भूमिकाओं का चयन कुछ उसी प्रकार से किया है। इसमें कुछ भी श्रेष्ठ या कमतर होने जैसा नहीं है। हवा की अपनी भूमिका है और पानी की अपनी। इनमें कोई प्रतिस्पर्धा या तुलना नहीं हो सकती है। उसी प्रकार से स्त्री या पुरुष में कोई प्रतिस्पर्धा या तुलना नहीं हो सकती है। दोनों की अपनी शारीरिक एवं मानसिक विशेषताएं हैं और उसी के अनुरूप भूमिकाएं भी निर्धारित हैं। न पुरुष को स्त्री होना है और न ही स्त्री को पुरुष होना है। आवश्यकता है यह है कि पुरुष को पुरुष और स्त्री को स्त्री के रूप में स्वीकार लिया जाए।
शिव और शक्ति में श्रेष्ठ कौन, राधा और कृष्ण में श्रेष्ठ कौन, इस तरह के प्रश्न निरर्थक और अनावश्यक हैं। मैं इस जन्म में पुरुष रूप में हूं और मुझे मेरे होने पर गर्व है। साथ ही मुझे उस जीवात्मा पर भी गर्व है, जिसे प्रकृति ने स्त्री होने की भूमिका दी है। यदि भूमिकाएं बदल जाएंगी और किसी जन्म में मुझे स्त्री रूप के साथ भूमिका दी जाएगी, तब भी गर्व का ही क्षण होगा। वस्तुत: प्रकृति की तरफ से मनुष्य के रूप में चुन लिया जाना ही गर्व की बात है।
इसी गर्व के साथ मैं कहता हूं – मैं पुरुष हूं।