चिन्मय दत्ता, चाईबासा, झारखंड।
रहीम का जन्म 17 दिसम्बर 1556 को दिल्ली में बैरम खान और सुल्ताना बेगम के यहां हुआ। बैरम खान मुगल बादशाह अकबर के संरक्षक थे। अकबर ने ही रहीम का नामकरण किया था। रहीम को वीरता, राजनीति, राज्य-संचालन दानशीलता तथा काव्य जैसे अद्भुत गुण अपने माता-पिता से विरासत में मिले थे। बचपन से रहीम साहित्य प्रेमी और बुद्धिमान थे।
1561 में बैरम खान की मृत्यु के बाद अकबर ने रहीम की बुद्धिमता को परखते हुए इनकी शिक्षा-दीक्षा का पूर्ण प्रबंध अपनी जिम्मेदारी में ले लिया। अकबर रहीम से इतना प्रभावित हुए कि शहजादों को प्रदान की जाने वाली उपाधि ‘मिर्जा खान’ से सम्मानित कर इनको संबोधित करने लगे और 1584 में अकबर ने इनको खान-ए-खाना की उपाधि से भी विभूषित किया। अकबर के दरबार में हिन्दी कवियों में इनका महत्वपूर्ण स्थान था।
मुस्लिम धर्म के अनुयायी होते हुए भी होते हुए भी इन्होंने अपनी काव्य रचना द्वारा हिन्दी साहित्य की जो सेवा की है वह अद्भुत है। हिन्दू जीवन अंतर्मन में बैठा कर इन्होंने जो मार्मिक तत्व अंकित किए थे वो इनके विशाल हृदय का परिचय देता है। सेनापति होने के साथ बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न ये मध्यकालीन कवि एक ही साथ कलम और तलवार धनी होने के साथ मानव प्रेम की सूत्रधार थे। ये जीवन भर हिन्दू जीवन को भारतीय जीवन का यथार्थ मानते रहे इसलिए इन्होंने रामायण, महाभारत, पुराण और गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को उदाहरण के लिए चुना। यही कारण है कि इनका काव्य आज भी हिंदुओं के गले का कंठहार बना हुआ है। आगरा में 1 अक्टूबर 1657 में इनका प्राणांत हो गया। रहीम की जयंती पर पाठक मंच के कार्यक्रम इन्द्रधनुष की 809वीं कड़ी में मंच की सचिव शिवानी दत्ता की अध्यक्षता में यह जानकारी दी गई।