आशा
जब साथ न देता कोई
मैं निज का हो जाता हूं।
पीड़ा जब सहन न होती
तो थक के सो जाता हूं।
अब गिनना भूल गया हूं
कितने हैं घाव बदन में
विस्मरण हो गया है अब
कैसी पीड़ा है मन में
होने का बोध न लेकिन
छूटा है, रो जाता हूं।
जब साथ न कोई देता
मैं निज का हो जाता हूं।
गैरों की बात न पूछो
डर लगता है अपनों से।
जागे में कँप जाता हूं
आने वाले सपनों से।
करता जब खोज अभय की
मरूथल में खो जाता हूं।
जब साथ न कोई देता
मैं निज का हो जाता हूँ।
दुख रजनी कितनी लम्बी
आकार असीमित पल का।
हैं, प्राण मेरे बेकल क्या-
सूरज निकलेगा कल का ?
अंधेरा कब बोलेगा
लो अब मैं तो जाता हूँ।
जब साथ न देता कोई
मैं निज का हो जाता हूँ।
धन यश की चाह नहीं है
एक मीठी बोली दे दो।
मुस्कान एक निश्छल सा
देकर गर्दन भी ले लो।
आशा के शीतल जल से
मैं दिल को धो जाता हूँ।
जब साथ न कोई देता
मैं निज का हो जाता हूँ।।
(उपर्युक्त गीत कवि व लेखक स्वर्गीय बी.एन.झा की पुस्तक इन्द्रधनुष ली गई है।)