Musician नौशाद को सड़क पार करने में क्यों लगे सत्रह साल?

चिन्मय दत्ता, चाईबासा, झारखंड।

हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार नौशाद अली के लिए मुंबई उम्मीदों का शहर था। यहां इन्हें पहले ठिकाने के रूप में दादर के ब्रॉडवे सिनेमा घर के सामने का फुटपाथ मिला। तब इन्होंने सपना देखा था कि कभी इस सिनेमा घर में मेरी कोई फिल्म लगेगी और आखिर 5 अक्टूबर 1952 को ‘बैजू बावरा’ उसी हॉल में रिलीज हुई।  रिलीज के समय नौशाद ने कहा, इस सड़क को पार करने में मुझे सत्रह साल लग गए…।

संगीतकार नौशाद अली का जन्म लखनऊ में मुंशी वाहिद अली के घर 25 दिसम्बर 1919 को हुआ। नौशाद, मैट्रिक पास करने के बाद लखनऊ के ‘विंडसर एंटरटेनर म्यूजिकल ग्रुप’ के साथ दिल्ली, मुरादाबाद, जयपुर, जोधपुर और सिरोही की यात्रा पर निकले। बाद में यह म्यूजिकल ग्रुप बिखर गया तो उन्होंने लखनऊ लौटने के बजाय मुंबई का रुख किया फिर 1935 में मुंबई आ गए।

इन्हें पहली बार स्वतंत्र रूप से 1940 में ‘प्रेम नगर’ में संगीत देने का अवसर मिला, लेकिन इनकी पहचान 1944 में प्रदर्शित ‘रतन’ से बनी। यहीं से इनकी कामयाबी का सफर शुरू हुआ।

फिल्मों में बेहतरीन संगीत देने के लिये नौशाद को कई पुरस्कारों से विभूषित किया गया जिनमें, 1954 में फिल्म ‘बैजू बावरा’ के लिए बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्म फेयर अवार्ड, 1981 में दादा साहेब फालके, 1984 में लता अलंकरण से सम्मानित हुए फिर 1992 में भारत सरकार ने इन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया।

इन्होंने छोटे पर्दे के लिए ‘द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान’ और ‘अकबर द ग्रेट’ जैसे धारावाहिक में भी संगीत दिया। 1960 में बनी ‘मुग़ल-ए-आज़म’ को 2004 में जब रंगीन किया गया तब इन्हें बेहद खुशी हुई। इनका कौशल इस बात की मिसाल है कि गुणवत्ता संख्याबल से कहीं आगे होती है। मुंबई में 5 मई 2006 को इन्होंने इस दुनियां को विदा कह दिया।
25 दिसम्बर को नौशाद अली की जयंती पर पाठक मंच के कार्यक्रम इन्द्रधनुष की 757वीं कड़ी में मंच की सचिव शिवानी दत्ता की अध्यक्षता में उपरोक्त जानकारी दी गई।

 

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