परिवर्तन प्रकृति का नहीं, प्रवृत्ति का नियम है

जब भी किसी की आदत बदलती है, किसी के प्रति किसी का व्यवहार बदलता है, किसी की पसंद या नापसंद बदलती है, तो हर किसी के पास अपने उस परिवर्तन को सही एवं सम्यक सिद्ध करने के लिए एक ही तर्क होता है, ‘अजी, बदलते तो सब हैं। परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है।’

संभव है कि आपने भी कई बार ऐसा कहा होगा या किसी न किसी को कहते सुना तो अवश्य होगा।

किंतु क्या कभी हमने पलटकर सामने वाले से या स्वयं से यह प्रश्न किया है कि क्या वास्तव में यह तर्क सही है? क्या सच में प्रकृति किसी भी तरह के बदलाव की सीख देती है? क्या वास्तव में प्रकृति में स्थायित्व का भाव नहीं है?

आज अपने इस स्तंभ में हम इसी प्रश्न के समाधान पर पहुंचने का प्रयास करेंगे कि क्या परिवर्तन वास्तव में प्रकृति का नियम है?

इस समाधान की तरफ कदम बढ़ाते हुए पहले हम इस बात को सत्य मानकर चलते हैं। मान लेते हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है।

अब यह मानने से एक प्रश्न फिर उठ खड़ा होता है कि प्रकृति से हमें कौन से परिवर्तन सीखने को मिलते हैं? प्रकृति में क्या है जो बदलता है?

सबसे पहले तो वो गाना याद आ जाता है, मेरे यार बदल ना जाना मौसम की तरह।

बदलाव की बात हो तो सभी मौसम का उदाहरण अवश्य देते हैं।

क्या वास्तव में मौसम परिवर्तन का प्रतीक हैं और इनके माध्यम से प्रकृति परिवर्तन का संदेश देना चाहती है?

कदापि नहीं।

मौसम परिवर्तन का प्रतीक नहीं हैं। मौसम तो तय व्यवस्था का प्रतीक हैं। हर मौसम का अपना क्रम है। हर मौसम का अपना समय है। हर मौसम की अपनी प्रकृति है। क्या इनमें से कुछ भी कभी बदल सकता है? प्रदूषण एवं अन्य कारकों से इनमें कुछ अनियमितता दिख सकती है, किंतु बदलाव कभी न हुआ है और न होगा।

इसी तरह दिन और रात परिवर्तन का नहीं अपितु व्यवस्था का प्रतीक हैं। हर सूर्योदय-सूर्यास्त, चंद्रोदय-चंद्रास्त सब निश्चित है। नियत समय पर नियत व्यवस्था के अनुरूप ही इन्हें होना है।

मनुष्य या किसी अन्य जीव के बचपन से लेकर वृद्ध होने और फिर समाप्त हो जाने तक की पूरी प्रक्रिया भी किसी तरह के परिवर्तन को नहीं दर्शाती है। यह भी नियत व्यवस्था ही है। सृष्टि के प्रारंभ से सब ऐसा ही तो चल रहा है। ऐसा तो है नहीं कि पहले बूढ़े पैदा होते थे और बाद में जवान व बच्चे बन जाते थे। सृष्टि का क्रम यही रहा है बच्चे से किशोर, वयस्क, प्रौढ़, वृद्ध और अंत में मृत्यु। इस पूरी व्यवस्था में कुछ भी तो नहीं परिवर्तित हुआ आज तक।

पेड़-पौधों की व्यवस्था भी जस की तस बनी हुई है। बीज से अंकुर को फूटना है, फिर पौधा बनेगा, बड़ा पेड़ होगा और अंत में एक दिन सूखकर गिर जाएगा। कुछ भी तो नहीं परिवर्तित हुआ आज तक। आज तक कोई आम का पेड़ बड़ा होकर बरगद तो नहीं हो गया।

आखिर प्रकृति में ऐसा क्या है जो परिवर्तित हो गया?

सत्य तो यही है कि यदि आप सोचेंगे तो प्रकृति परिवर्तन की बात करती ही नहीं है। प्रकृति में बस प्रक्रिया और प्रगति का संदेश दिया गया है। प्रकृति मात्र प्रक्रिया का पालन करना और प्रगति के पथ पर बढ़ने की प्रेरणा देती है। जिन्हें हम गाहे-बगाहे परिवर्तन का नाम दे देते हैं, वे भी बस कुछ अनियमितताएं होती हैं, जिन्हें प्राकृतिक नहीं कहा जा सकता है।

वास्तव में जो प्राकृतिक है, वह परिवर्तित नहीं होता है। परिवर्तन उन वस्तुओं, घटनाओं, संबंधों आदि में ही संभव है, जो प्राकृतिक नहीं हैं।

इसे अपने जीवन के उदाहरण से समझते हैं।

माता-पिता, भाई-बहन आदि संबंध प्राकृतिक हैं। इन्हें निर्मित नहीं किया जा सकता है। इसीलिए इन्हें परिवर्तित भी नहीं किया जा सकता है। आप विकास-क्रम में कितना भी आगे बढ़ जाएं, लेकिन इनमें से कोई संबंध कभी नहीं बदल सकता। दोस्त बनाए जाते हैं, इसलिए बदल भी जाते हैं।

अब आपके मन में यह प्रश्न आ रहा होगा कि यदि परिवर्तन प्रकृति का नियम नहीं है, तो ऐसा कहा क्यों जाता है?

इसका भी कारण है।

वस्तुत: प्रकृति जैसा यानी प्राकृतिक होना बहुत अधिक दृढ़ता एवं पवित्रता की बात है। स्वयं को, अपनी भावनाओं को, अपने संबंधों को प्रकृति के स्तर तक ले जाना जटिल है। प्रकृति बहुत दृढ़ है। वह बसंत में जिन शाखों पर फूल खिलाती है, पतझड़ में उनके पत्ते तक झर जाते हैं। किंतु प्रकृति उस मोह में नहीं उलझती। क्योंकि उसे प्रक्रिया एवं प्रगति के क्रम पर दृढ़ रहना है। उसे पता है कि इन पत्तों का जीवन क्रम पूर्ण हो चुका है। पतझड़ में इनका झर जाना प्रगति के लिए आवश्यक है। ऐसा होने पर ही अगले बसंत में नए फूल खिलेंगे। प्रकृति की व्यवस्था की पवित्रता ऐसी है कि किसी भी पेड़-पौधे के साथ कोई अलग व्यवहार नहीं होता है। प्रकृति से सभी को सब कुछ समान रूप से मिलता है। अपनी-अपनी योग्यता के अनुरूप सब बढ़ते हैं। प्रकृति के स्तर की दृढ़ता सामान्यजन ला नहीं पाते हैं। न ही प्रकृति की व्यवस्था जैसी पवित्रता कहीं मिल पाती है। इसीलिए हमारी भावनाएं और हमारे संबंध भी समय के साथ बदलते रहते हैं। दृढ़ता एवं भावों की पवित्रता की यह कमी मूलत: एक दोष है और अपने इस दोष को आवरण देने के लिए हमने एक वाक्य गढ़ लिया है, ‘परिवर्तन प्रकृति का नियम होता है।’ यह केवल अपनी कमजोरी को छिपाने का माध्यम है। संबंधों एवं भावनाओं पर अडिग न रह पाने की अपनी कमजोरी को हम प्रकृति के नाम पर सही ठहराने का प्रयास करते हैं। यह मानव स्वभाव है। वस्तुत: परिवर्तन प्रकृति का नहीं, प्रवृत्ति का नियम है।

अब आपके मन में एक और प्रश्न आ रहा होगा कि क्या जीवन में कुछ बदलाव नहीं होना चाहिए?

असल में पहले आप इस प्रश्न को बदलिए।

प्रश्न यह कीजिए कि क्या जीवन में कोई विकास नहीं होना चाहिए?

वस्तुत: हम बदलाव और विकास के बीच उलझ जाते हैं।

प्रकृति विकास सिखाती है। जीवन में विकास की राह पर बढ़िए, बदलाव की राह पर नहीं।

अपने मूल को मत बदलिए, अपने स्वभाव में प्रकृति की दृढ़ता रखिए। जो पेड़ अपनी जड़ों पर जितना गहरा एवं स्थिर होता है, वह उतना ही सघन और मजबूत होता है। गमले के पेड़ के बढ़ने की एक सीमा होती है, क्योंकि गमले के साथ कभी भी उस पेड़ या पौधे को प्रकृति वाली दृढ़ता नहीं मिल पाती है।

अपने संबंधों को लेकर दृढ़ रहिए। अपनी भावनाओं को लेकर दृढ़ रहिए। अपने आदर्शों को लेकर दृढ़ रहिए। अपने स्वभाव को प्रकृति के समान पवित्र एवं दृढ़ रखिए। जब आप इतने प्राकृतिक हो जाते हैं, तब आपको परिवर्तन और विकास का अंतर समझ आने लगता है।

जब आप इस अंतर को समझ लेंगे, तब आप भी कहेंगे,

परिवर्तन प्रकृति का नहीं, प्रवृत्ति का नियम है।

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