प्रेमचंद के फटे जूते(हिंदी दिवस विशेष)
प्रेमचंद रईस नहीं थे, न जमींदार थे। हां ! नाम अलबत्ता नवाब था। लेकिन सिर्फ नाम से आदमी रईस नहीं होता। जूता रईसी की चीज़ थी, प्रेमचंद के जमाने में। उस जमाने में प्रेमचंद के कर्मभूमि के किसान जूता का नाम तक नहीं सुने थे। पहनने की बात दूर थी। हां ! कुछ संत जूता पहनते थे, जैसे कुम्भन दास।
आवत जात पनहिया टूटी, बिसर गये हरिनाम। उन दिनों देहात में एक शादी में दुल्हिन के लिये गहना चढ़ा। उसके साथ चप्पल भी था। सारी महिला समाज परेशान हो गई। कुछ गहना कहां पहना जाता है। खैर था कि गांव में एक अकिला(अक्लमंद) बुआ रहती थी। उनको सम्मान के साथ बुलाया गया। बुआ ने चप्पल को उलटा-पलटा और कहा, रे बुड़बक ! इ नाक में पहनने वाला नकलोला न है।
उस समाज के रहने वाले प्रेमचंद इन्सपेक्टरी भी कर चुके थे, इसलिये जूते की आदत थी। प्रेमचंद के पैर में जूते मौजूद थे, फटा ही सही। जूता पहनना रईसी थी। फटा हुआ जूता पहनने का अर्थ था, रईसी में पैबंद।
बहरहाल, संयुक्त प्रांत, जो बाद में उत्तर प्रदेश हुआ, के अंग्रेज गवर्नर ने प्रेमचंद को सम्मानित करना चाहा। प्रेमचंद ने पत्नी से राय ली। पत्नी ने कहा कि कुछ पैसे दें, तो ले लो। प्रेमचंद ने कहा, फिर मैं जनता का लेखक नहीं रह पाउंगा।
पहले लेखकों को अखबारों, पत्रिकाओं से पारिश्रमिक मिलता था। प्रकाशकों से किताब की रॉयल्टी मिलती थी। लेखक उसी कमाई से परिवार चलाते थे। सुनते हैं, पत्रिकाएं अच्छा पारिश्रमिक देती थी, इसलिये शायद ढ़ेर सारी पत्रिकाएं बड़े प्रतिष्ठान होने के बावजूद बंद हो गई।
उन दिनों प्रकाशक किताब बेचकर मालामाल हो जाते। पहले किताब बिकती भी थी। बावजूद लेखकों के छाती की हडडी कुरते के बाहर से ही दिखाई पड़ती थी। लेखक प्रकाशक के यहां रॉयल्टी के लिये जाते। प्रकाशक रोना रोता, सर। किताब बिक नहीं रही है। यह कहते हुए कुछ रोकड़ा थमा देता। लेखक मन मारकर लौट जाते।
कुछ लेखक जैसा कि रामकुमार वर्मा की एकांकी नाटक “दो कलाकार” में दिखाया है, उसी तरह वसूलते। प्रकाशक को देखते ही शुरू हो जाते।
झूठ, दगाबाजी, मक्कारी दुनियां के जितने छल चंद
नहीं छूटे हैं उससे कोई धन्य प्रकाशक परमानंद
इनकी बीवी मना रही हैं, जल्द वो हो जाएं रांड
कंवल की चौथी पंक्ति पूरी होती कि झट प्रकाशक जी पैसा लेखक की जेब में डाल देते।
अब के लेखकों का लेखन साइड बिजनेस है। रचना छप गई, इसी में धन्य धन्य हो गये। पैसा तो उनके पास है ही, साहित्यकारों में नाम आ गया यही बहुत बड़ी बात है। कुछ रसूख वाले पद पर काम करते हैं। प्रकाशक उनकी किताबों को सजा धजा कर छापते हैं। किताबों की सरकारी खरीददारी हो जाती है। प्रकाशक, लेखक दोनों धन्य धन्य हो जाते हैं। इसलिये किताबों के पाठक भी नहीं मिल रहे हैं।
प्रेमचंद में ये सब लटके झटके नहीं थे, इसलिये उनकी फटेहाली ज्यादा थी। नहीं तो जूते सिलवाने में कौन सी बड़ी बात थी। मोची से सिलवा लेते तब फोटो खिंचवाते। आने वाली पीढ़ी की इज्जत तो बचती। मान लिया लेखक का ध्यान नहीं गया, रानी(पत्नी) को तो ध्यान देना चाहिये था। बड़े लेखक थे, चेहरा चमके न चमके जूता चमकदार होना चाहिये था। लेखक की इज्जत सरेआम नीलाम हो गई।
बातें फटे जूते पर चल रही थी, वो भी प्रेमचंद के फटे जूते पर तो वियतनाम की याद आ गई। उस समय नारा लगता था- आमार नाम तोमार नाम वियतनाम वियतनाम। वियतनाम के राष्ट्रपति हो ची मिन्ह भारत आए। अमेरिका जैसे महाबली को हराकर दोनों वियतनाम को एक करके उसके राष्ट्रपति हुए थे। 30 साल अमेरिका से लड़े। अमेरिका घुटना टेककर भागा। वियतनाम की अवस्था जर्जर थी। नई दिल्ली हवाई अड्डे पर राष्ट्रपति जी उतरे। एक पत्रकार की नजर उनके फटे जूते पर पड़ी। वैसे भी कुछ पत्रकारों की नजर अच्छी चीजों पर पड़ती ही नहीं। उन्होंने बेशर्मी से पूछ दिया। उसने यह भी नहीं सोचा कि उनका व्यक्तित्व आसमान से भी ऊंचा था।
राष्ट्रपति ने जवाब दिया, जब तक सारा वियतनाम नया जूता पहनने लायक नहीं होता तब तक राष्ट्रपति को फटे जूते से ही काम चलाना होगा। सन्नाटा छा गया।
शायद इसलिये गांधी जी ने लंगोटी धारण किया था।
संभव है प्रेमचंद ने यही सोचा होगा कि अधिकांश भारतीय के पास जूता नहीं है, मेरे पास फटा हुआ, है तो।
नोट- इसके लेखक दिवंगत सिद्धेश्वर नाथ पांडेय जी हैं, जो कोरोना काल में इस लौकिक दुनिया से चले गये, लेकिन उनकी कई महत्वपूर्ण रचनाएं विकल्प मीमांसा में प्रकाशित हुई और अब धरोहर के रूप में है। हम समय-समय पर उसे वेबसाईट पर भी लगाते रहेंगे।