माता-पिता और बच्चों का संबंध

बच्चों का लालन-पालन इस संसार में समाज व्यवस्था का सबसे अहम घटक है। वस्तुत: यह पूरे समाज की नींव है। अच्छा लालन-पालन मात्र एक संतान को अच्छा नहीं बनाता है, बल्कि यह समाज की मूल इकाई को अच्छा बनाता है। एक अच्छी संतान ही एक अच्छा नागरिक बनकर सामने आती है।
ऐसे में जब कहीं किसी परिचित या किसी अपरिचित परिवार में ऐसी कोई घटना सुनने या पढ़ने को मिल जाती है, जहां बच्चों ने माता-पिता का अपमान किया हो, तो मन व्यथित हो उठता है। कई प्रश्न मन में उठने लगते हैं।
प्रश्न उठता है कि आखिर माता-पिता और बच्चों का संबंध मूलत: है क्या? इस संबंध के अच्छे या बुरे होने के लिए कौन से कारक जिम्मेदार होते हैं? माता-पिता के रूप में क्या किया जाए कि हम अच्छी संतान और समाज को अच्छा नागरिक दे पाएं?
आज हम इसी के समाधान तक पहुंचने का प्रयास करेंगे।
माता-पिता और संतान के बीच के संबंध को समझने के लिए इस संबंध को दो अलग-अलग स्तर पर समझना होगा।
पहला है, शास्त्रों और अध्यात्म के स्तर पर।
दूसरा है, सामाजिक स्तर पर।
एक एक करके इन दोनों दृष्टि पर चर्चा करते हैं।
शास्त्रों एवं अध्यात्म की दृष्टि से माता-पिता और संतान के संबंधों को समझने के लिए हमें अपने पुराने लेख ‘कर्म और भाग्य का संबंध’ को थोड़ा सा दोहराना होगा।
कर्म और भाग्य पर विमर्श करते हुए हमारे समक्ष दो बातें स्पष्ट हुई थीं।
पहली बात, हर कर्म का फल निश्चित है। वह कर्मफल इस जन्म में या अन्य किसी भी जन्म में मिल सकता है। पुराने किसी जन्म का या इसी जन्म के किसी पुराने कर्म का फल हमारे समक्ष भाग्य के रूप में आता रहता है। इसी क्रम में हमने यह भी समझा था कि कहीं किसी परिवार में किसी का जन्म लेना भी उस पूरी प्रक्रिया से जुड़े हर व्यक्ति के कर्मों के फल के आधार पर निर्धारित होता है।
दूसरी बात, भाग्य कैसा भी हो और कितना भी प्रबल हो, हमारे पास कर्म करने की शक्ति सदैव रहती है। कर्म के आधार पर हम भाग्य को नहीं बदलते हैं, बल्कि भाग्य के प्रभाव को बदलने में सक्षम होते हैं। एक भाग्य जो आपके समक्ष है, वह आपको कितना प्रभावित करेगा, यह आपके कर्म पर निर्भर करता है। यही कारण है कि कर्म को श्रेष्ठ कहा गया है। (पूरा आलेख यदि आपने नहीं पढ़ा है, तो इस लिंक से पढ़ सकते हैं।)

अब आते हैं आज के विषय पर।
कर्म और भाग्य की चर्चा में हम यह तो जान ही गए कि कौन कहां और किस परिवार में जन्म लेगा, यह उस पूरी प्रक्रिया में जुड़े सभी लोगों के कर्मों और उनके कर्मफल का परिणाम होता है। अर्थात आपके घर में संतान के रूप में जिसे जन्म लेना है, उसके और आपके बीच में पहले से ही कर्म-संबंध जुड़े होते हैं। इसे कर्म-अनुबंध भी कहा जाता है। कर्म के इसी पूर्व संबंध के आधार पर चार प्रकार की संतान कही गई हैं।
ऋणानुबंध संतान: किसी पूर्वजन्म में आपने किसी से कुछ ऋण लिया था या किसी को कुछ ऋण दिया था, लेकिन परिस्थितियों के कारण वह ऋण चुकाया नहीं जा सका। ऋणानुबंध संतान का जन्म वही ऋण चुकाने के लिए होता है। यदि आपने ऋण दिया था, तो वह संतान अपने कर्मों से आपके उस ऋण को चुकाएगी। यदि आपने किसी जन्म में ऋण लिया था तो वह संतान आपसे उस ऋण को ले लेगी।
शत्रु संतान: कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी पूर्व जन्म की कोई ऐसी आत्मा आपके यहां संतान के रूप में आती है, जिससे आपने कोई शत्रुता रखी थी और उसे अकारण ही बहुत बड़ी हानि पहुंचाई थी। उस जन्म में वह उस शत्रुता का प्रतिउत्तर देने में सक्षम नहीं था, इसलिए संतान के रूप में उसी शत्रुता का प्रतिउत्तर देने वह आपके परिवार में आता है। ऐसे कुछ उदाहरण देखने को मिल जाते हैं, जहां कोई संतान अपने माता-पिता को बहुत अधिक अपमानित और प्रताड़ित करती है। संतान द्वारा माता-पिता की हत्या तक के मामले देखे जाते हैं।
सेवक संतान: किसी पूर्वजन्म में आपने किसी की बहुत अधिक सेवा की और अब उसी सेवा का प्रतिफल देने के लिए वह आत्मा आपके घर में संतान के रूप में आई है। ऐसे बच्चे अपने माता-पिता की बहुत सेवा करते हैं। उनकी सेवाभावना की सराहना हर तरफ होती है।
उदासीन संतान: बहुत बार ऐसा भी होता है कि आपके यहां संतान के रूप में एक ऐसी आत्मा जन्म लेती है, जिसका आपसे कोई पूर्व संबंध नहीं रहा है। ऐसी संतान न तो प्रत्यक्ष रूप में माता-पिता को कोई कष्ट देती है और न ही उनके कष्टों में उनकी सेवा करती है।
बच्चा कैसा व्यवहार कर रहा है, इस आधार पर आप यह समझ सकते हैं कि उससे आपके पूर्वजन्म के संबंध क्या और कैसे रहे होंगे।
यह तो निश्चित है कि भाग्य के आधार पर यह निर्धारण हो जाता है कि आपकी संतान मूलत: कैसी होगी।
लेकिन,
क्या संतान का स्वभाव बस पूर्वजन्म के संबंधों पर ही टिका है? क्या उसके स्वभाव में माता-पिता के इस जन्म के कर्मों की कोई भूमिका नहीं होती है?
ऐसा नहीं है।
कर्म और भाग्य के संबंधों में हम स्वयं ही इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि कर्म सर्वोपरि है। निश्चित तौर पर भाग्य के जिस गणित के आधार पर पूर्वजन्म के अनुबंधों से जुड़ी आत्मा आपकी संतान बनी है, उसके प्रभाव को भी कम या अधिक किया जा सकता है।
पूर्व के अनुबंध बच्चे के मूल स्वभाव को रचते हैं, लेकिन अब माता-पिता के रूप में हम क्या करेंगे, इससे उसके स्वभाव और कर्मों पर भी प्रभाव पड़ेगा।
वस्तुत: उपरोक्त चार में से आपकी संतान किसी भी प्रकार की हो, आपके घर में जन्म लेते ही उसके कर्मों के तार आपसे जुड़ जाते हैं। अब माता-पिता के रूप में आप क्या करेंगे, इससे ही यह निर्धारित होगा कि वह अपने मूल स्वभाव से कितना इतर होकर चलेगा।
वैसे भी पूर्वजन्म का हिसाब-किताब कुछ भी हो, जब कोई जीव जन्म ले लेता है, तो वह इस जन्म के कर्मों से भी बंध जाता है। केवल पुराने हिसाब-किताब से पूरा जीवन नहीं व्यतीत होगा। वह अगले जन्मों के लिए क्या कर्मफल और प्रारब्ध तैयार करेगा, माता-पिता के रूप में यह जिम्मेदारी आप पर है।
अपनी संतान के कर्मों को अच्छा करने की यह जिम्मेदारी ही इस संबंध का सामाजिक पहलू है।

बच्चों को दें अच्छे कर्मों की सीख
बच्चों के लालन-पालन की बात आते ही एक बात कही जाती है कि उन्हें अच्छे-बुरे कर्मों के बारे में समझाएं। निसंदेह यह सही कदम है। लेकिन, इसमें हमें एक संशोधन करना होगा। बच्चे को अच्छे-बुरे कर्मों के बारे में मत समझाइए। उसे बस अच्छे कर्मों की सीख दीजिए। बुरे कर्म को पहचानना और उससे दूर रहना वह अपने विवेक से सीख जाएगा। अच्छाई प्रकाश है और बुराई अंधकार। आप केवल अच्छाई के प्रकाश पर ध्यान दें, बुराई का अंधकार स्वत: ही दूर रहेगा।

संबंधों का महत्व समझाएं
जीवन में संबंध और भावनाएं बहुत अहम हैं। बच्चों को प्रारंभ से ही इनके महत्व का अनुभव कराएं। उन्हें समझाएं कि मानव का सामाजिक जीवन संबंधों के आधार पर ही रचा गया है। असल में अच्छी परवरिश की बात आते ही हम अच्छे कपड़े, अच्छा खाना, अच्छा स्कूल और अच्छे घर पर सिमट जाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में अच्छे संस्कार की बात कहीं पीछे छूट जाती है। कभी तसल्ली से सोचिए कि हम बच्चों से कब संबंधों के महत्व और संस्कारों की बात करते हैं। हमारी बातें बस अच्छे से पढ़ने और अच्छे अंक लाने तक सीमित रहती हैं। यह सही नहीं है। थोड़ा सा समय निकालिए और बच्चों से इस बारे में बात कीजिए। उन्हें बताइए कि संबंध क्या होते हैं। उन्हें धर्म और अध्यात्म के मूल पाठ से परिचित कराइए। उन्हें श्रेष्ठ बनने के साथ-साथ अच्छा बनने के बारे में भी बताइए। उन्हें बताइए कि एक अच्छे बच्चे को क्या करना चाहिए। एक अच्छे नागरिक को क्या करना चाहिए।

बच्चों का दोस्त बनना कितना आवश्यक है?
बच्चों के लालन-पालन की बात हो, तो एक बात प्राय: सुनने को मिलती है कि बच्चों के दोस्त बनकर रहना चाहिए। अच्छे माता-पिता होने के लिए अच्छा दोस्त बनना आवश्यक है।
क्या सच में ऐसा है?
बिलकुल नहीं।
माता-पिता को माता-पिता ही रहना चाहिए। जीवन में हर संबंध की अपनी महत्ता है। दोस्त की अपनी भूमिका होती है, भाई-बहन की अपनी और माता-पिता की अपनी। किसी संबंध को किसी अन्य से न तो बदलने की आवश्यकता है और न ही इनमें कोई प्रतियोगिता होती है।
बच्चों को संबंधों का महत्व समझाने का अर्थ यही है कि उन्हें यह पता हो कि किसी संबंध की क्या मर्यादा है। बच्चों के मन में यह विश्वास पैदा करना कि आप उनकी बातें समझ सकते हैं, इसके लिए आपको दोस्त हो जाने की कतई आवश्यकता नहीं होती। आप माता-पिता रहते हुए ही उनके मन में यह विश्वास बना सकते हैं। वस्तुत: जैसे ही माता-पिता दोस्त बनने लगते हैं, संबंधों की मर्यादा क्षीण होने लगती है। संबंध कोई भी हो, उसे वही रहने दीजिए, जो वह है।
किसी आत्मा ने किस उद्देश्य और भाव के साथ आपके यहां संतान के रूप में जन्म लिया, उस पर आपका कोई नियंत्रण नहीं है। लेकिन जन्म के बाद अपने बच्चे के स्वभाव पर आपका पूरा नियंत्रण हो सकता है। आप उसे मनचाही दिशा दे सकते हैं। आप शत्रु भाव से जन्मी आत्मा को भी माता-पिता और अन्य सभी का सम्मान करने वाला बना सकते हैं। यह मत भूलिए कि आपके बच्चे के इस जन्म के कर्म आगे उसके जीवन को प्रभावित करेंगे। इस अंतर को समझाना आपका कर्तव्य है। बच्चों को सिखाने का सबसे बड़ा तरीका होता है, अपना स्वयं का व्यवहार। आप संबंधों को जितना महत्व और सम्मान देते हैं, बच्चे भी उतना ही महत्व और सम्मान देना सीखते हैं।
बच्चों को कुछ बातें कहकर सिखाइए और कुछ अपने कर्मों से। ध्यान रहे कि आप जैसी संतान चाहते हैं, आपको स्वयं भी वैसी ही संतान बनकर रहना होगा। आप उसे जैसा मनुष्य बनाना चाहते हैं, आपको स्वयं भी वैसा होना होगा।

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