हर नर में थोड़ी सी नारी होती है…

अमित तिवारी

स्त्री और पुरुष की बात होते ही समता और विषमता के प्रश्न खड़े होने लगते हैं। अधिकार एवं अनाधिकार के तर्क दिए जाने लगते हैं। कौन शक्ति संपन्न है और कौन शक्तिविहीन है, इस पर विवाद होने लगता है।

पुरुषप्रधान समाज के होने से लेकर पुरुषार्थ तक की बातें भी होने लगती हैं।

अगर हम कहते हैं कि स्त्री और पुरुष में भेद या प्रतिस्पर्धा है ही नहीं, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, तो पुरुषार्थ और पुरुषत्व जैसे शब्दों की याद दिलाते हुए कहा जाता है कि यदि कोई भेद नहीं है, तो फिर स्त्रियों के लिए भी इसी तरह के शब्द क्यों नहीं हैं। पुरुषार्थ की भांति स्त्रियार्थ, स्त्रैण और स्त्रीत्व जैसे शब्द क्यों नहीं कहे जाते हैं।

यह तर्क सही भी लगता है।

यदि पुरुष को प्रधान न माना गया होता, तो मात्र पुरुषार्थ या पुरुषत्व जैसे शब्द ही क्यों गढ़े गए।

इन्हीं शब्दों, तर्कों और विषयों को ध्यान में रखते हुए आज हम स्त्री और पुरुष पर विमर्श को समाधान तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।

इसके लिए हमें शब्दों की व्युत्पत्ति और उनके अर्थ को समझना होगा।

सबसे पहले बात करते हैं पुरुष की।

वस्तुत: पुरुष कौन है?

क्या वास्तव में नर का पर्यायवाची पुरुष है?

क्या वास्तव में अंग्रेजी के Male का अर्थ ही पुरुष है?

ऐसा नहीं है।

मूलत: हर जीव के लिए पुरुष की संज्ञा प्रयोग की जाती है।

गीता में अर्जुन के एक प्रश्न से पुरुष शब्द स्पष्ट होता है।

13वें अध्याय में अर्जुन कहते हैं,

प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च |

एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ||||

अर्थात, हे कृष्ण! मैं प्रकृति एवं पुरुष (भोक्ता), क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान एवं ज्ञेय के विषय में जानने का इच्छुक हूँ।

इस प्रश्न में अर्जुन जब पुरुष के बारे में जानने की इच्छा करते हैं, तब वह वस्तुत: प्रत्येक जीव के संदर्भ में कह रहे होते हैं।

पुरुष शब्द का प्रयोग सभी जीवों (मनुष्य) के लिए अनेकानेक स्थानों पर किया गया है।

पुरुषार्थ शब्द की व्युत्पत्ति भी इसी से हुई है।

पुरुष अर्थात् जीव का लक्ष्य ही पुरुषार्थ है। अर्थका प्रयोग लक्ष्यके लिए किया गया है।

पुरुषार्थ किसी नर के जीवन का लक्ष्य नहीं है। पुरुषार्थ सभी पुरुष यानी जीवों के जीवन का लक्ष्य है। पुरुषत्व शब्द की मूल व्युत्पत्ति भी ऐसी ही है।

इसी कारण से चार पुरुषार्थ बताए गए हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

ये लक्ष्य मात्र नर के लिए नहीं, नारी के लिए भी हैं। अर्थात् नारी भी इन पुरुषार्थ की अभिलाषी और पात्र है।

इसलिए फिर कभी कोई वेद, गीता और शास्त्र में पुरुषार्थ जैसे शब्दों का उल्लेख करते हुए आपके समक्ष यह तर्क रखना चाहे कि पूरी व्यवस्था सदैव से पुरुषप्रधान (उनके शब्दों में नरप्रधान) रही है, तो उसे पुरुष शब्द के वास्तविक अर्थ से अवश्य परिचित कराइए।

 

यहां तक आते-आते आप संभवत: यह समझ गए होंगे कि हमने विषय में स्त्रीत्व और पुरुष शब्दों का प्रयोग न करते हुए नारीत्व और नर शब्दों का प्रयोग क्यों किया है।

मूलत: लैंगिक आधार पर पहचान कराने वाले शब्द नर और नारी हैं। स्त्री और पुरुष नहीं। इसीलिए अर्धनारीश्वर हैं, अर्धस्त्रीश्वर नहीं…

अब आते हैं अपने मूल विषय पर…

हर नर में थोड़ी सी नारी होती है।

इसके लिए एक प्रश्‍न पर विचार कीजिए कि क्या नारीत्व से विहीन पुरुष संभव है?

अर्थात् क्या ऐसा कोई पुरुष हो सकता है, जिसमें नारी का गुण न हो।

इसका उत्तर है, नहीं।

इसे समझने के लिए इस सृष्टि में नर और नारी की भूमिका को समझते हैं।

वस्तुत: पूरी सृष्टि ही ब्रह्म और माया का विस्तार है।

और जीव क्या है?

माया से आवरित ब्रह्म ही जीव है।

ब्रह्म बीज रूप में नर है और माया प्रकृति रूप में नारी है। यही दोनों विस्तारित होकर सृष्टि का निर्माण करते हैं।

बिना माया के ब्रह्म किसी सृष्टि का निर्माण करने में सक्षम नहीं।

यह व्यवस्था स्वयं ही माया, प्रकृति और नारी की महत्ता को दर्शाती है।

अब इसे थोड़ा और समझते हैं।

हर जीव मूलत: ब्रह्म और माया का मेल है। यहां इस पृथ्वी पर उसे नर का शरीर मिला हो या नारी का, दोनों में ब्रह्म और माया ही हैं। अर्थात् हर नर में नारी और हर नारी में नर है।

परंतु प्रकृति से मिले हर शरीर के अपने कुछ प्रधान गुण होते हैं।

इसी प्रकार से नारी के और नर के भी कुछ प्रधान गुण होते हैं।

नारी शरीर के गुण स्वयं प्रकृति और पृथ्वी जैसे हैं। उसमें धैर्य है, शक्ति है, संवेदना है, भावना है, सौंदर्य है, जीवन है और प्राण देने का सामर्थ्य भी है। वहीं नर मूलत: एक जड़रूपी बीज से अधिक कुछ भी नहीं। उसमें नारी ही धैर्य, शक्ति, संवेदना, भावना, सौंदर्य और प्राण डालती है। नारी मूलत: शक्ति है और शक्ति की प्रधानता श्रीमद्देवीभागवत पुराण में वर्णित है। मार्कंडेय पुराणोक्त दुर्गासप्तशती और कूर्म पुराण भी शक्ति साधना व उनके स्वरूप का वर्णन करते हैं। विभिन्न शाक्त उप-पुराण भी शक्ति-स्वरूप को समझने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

शक्ति का वही मूल नारी में है।

संपूर्ण सृष्टि ही नारी प्रधान है।

या ऐसे भी कहते हैं कि संपूर्ण सृष्टि ही नारी है।

नारी होना स्वयं में संपूर्णता है। एक नर को संपूर्ण होने के लिए नारीत्व की आवश्यकता है। अर्धनारीश्वर भी सभी जीवों को मूलत: यही संदेश देते हैं।

ब्रह्म और माया के विस्तार से बनी इस सृष्टि के श्रेष्ठतम संचालन के लिए नारी और नारीत्व का प्रभावी रहना आवश्यक है।

हर नर को जीवित रहने के लिए आवश्यक प्राण नारी ही देती है। नर में जीवित होने और श्रेष्ठ जीव होने के जितने भी संभव गुण हैं, सब उसमें समाहित नारी-चेतना और नारी अंश का ही परिणाम हैं।

परंतु…

सृष्टि की इस नारी प्रधानता के साथ ही नर शरीर की जड़ता का भी सृष्टि संचालन में उतना ही महत्व है। यदि इस जड़ता की भूमिका न होती तो सृष्टि ने सभी को नारी शरीर और नारी स्वभाव ही दे दिया होता।

नर की जड़ता सूखी मिट्टी जैसी है, जिसे नारी-स्वभाव की नमी श्रेष्ठ मनुष्य बनाती है। इस नमी के बिना वह धूल बन जाएगा, साथ ही ज्यादा नमी होगी तो मिट्टी कोई आकार नहीं ले पाएगी।

मूलत: नर का नारी अंश के साथ अपनी जड़ता को बनाए रखना तथा नारी का संपूर्ण नारीत्व एवं शक्ति के साथ अपने स्वभाव को प्रकृति से आत्मसात करना सृष्टि संतुलन का श्रेष्ठ उपाय हैं।

वर्तमान भौतिक स्वरूप में सामाजिक विद्वेष के पीछे का कारण यही है कि नर अपने अंदर के स्वाभाविक नारीत्व को क्षीण करने का प्रयास करता है। दूसरी तरफ, नारी स्वयं अपने प्राकृतिक स्वभाव का दमन करते हुए नर हो जाने को आतुर है। मुख्यत: समाज के वर्तमान नरप्रधान स्वरूप में नर से अधिक भागीदारी नारी की है, जिसने स्वयं नर-स्वभाव को प्रधानता दी है।

नारी की प्रधानता को स्थापित करने का सामर्थ्य नर में नहीं, स्वयं नारी में है।

(समाधान है… कॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिए… क्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)

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