रिश्तों में आजादी की चाहत…

आजादी बड़ा अच्छा शब्द है। इसे सुनते ही व्यक्ति कुछ ऐसे भावों से भर जाता है, मानो उसे जीवन में सब कुछ प्राप्त करने की राह दिख गई हो।

हर व्यक्ति जीवन में आजादी चाहता है। वह अपने हिसाब से जीवन जीना चाहता है।

आजाद परिंदे जैसी जिंदगी को लेकर न जाने कितने किस्से लिखे और गढ़े गए हैं। न जाने कितनी फिल्में बनी हैं। हम पर किसी की बंदिश न हो, हमें किसी की फिक्र न करनी पड़े, हमें किसी के हिसाब से न चलना पड़े, हमें किसी को जवाब न देना हो और ऐसी ही न जाने कितनी इच्छाएं होती हैं आजाद परिंदे की तरह जीने की चाह रखने वालों में।

वैसे तो इन बातों में ऐसा कुछ गलत नहीं लग रहा है। अच्छा ही है सब। व्यक्ति आजादी से जीता है तो नए विचार उसके मन में आते हैं। वह कुछ नया रचता है। वह इतिहास बनाता है।

जब व्यक्ति सबसे मुक्त होता है, तो उसे बोधत्व की प्राप्ति होती है। इस संबंध में भगवान बुद्ध से लेकर ऐसे कई उदाहरण भी दिए जा सकते हैं, जिन्होंने संबंधों से मुक्त होकर जीवन को नई राह दी। न केवल अपने जीवन को, बल्कि समाज को भी नई दिशा दी।

लेकिन,

क्या संबंधों में आजादी या संबंधों से आजादी वास्तव में इतनी सहज और अच्छी बात है?

क्या जीवन में कुछ बेहतर करने के लिए संबंधों से मुक्त होना आवश्यक है?

क्या संबंध वास्तव में बंधन होते हैं?

एक शब्द में उत्तर है, ‘नहीं’!!!

चौंकिए मत कि लेख के प्रारंभ से ही आजादी और आजाद परिंदे जैसी जिंदगी के लिए भूमिका बनाते-बनाते हमने इसे खारिज क्यों कर दिया।

बिन डोर की पतंग…

इस बात को समझाने का सबसे सहज उदाहरण है पतंग। एक पतंग ऊंची उड़ती है, लेकिन कहीं न कहीं उससे बंधी डोर उसे रोके भी रहती है। प्रश्न यह है कि वह डोर पतंग के उड़ने का कारण है या उसे रोके रखने का माध्यम? इसका उत्तर भी हम सब जानते हैं। असल में वह डोर बंधी है, तभी वह पतंग ऊंची उड़ने में सक्षम है। जिस पल उसे अपनी डोर का बंधन मुश्किल लगने लगेगा और वह उससे आजादी चाहेगी, ठीक अगले ही पल वह कटी पतंग की तरह कहीं गिर पड़ेगी। यही जीवन है। जिन संबंधों की डोर हमें अपनी उड़ान में बाधक लगती है, असल में हमारी उड़ान उनके ही कारण है। जिस दिन डोर कटेगी, व्यक्ति कटी पतंग की तरह कहीं धूल खाता मिलेगा।

तब फिर बुद्ध के उदाहरण और किस्से-कहानियों का क्या अर्थ है?

असल में पतंग का उदाहरण सुनते ही हम सबके मन में भगवान बुद्ध और उन जैसे अन्य उदाहरण भी आने लगते हैं, जहां संबंध से मुक्त होकर व्यक्ति ने समाज की दिशा बदल दी। आजाद परिंदों वाले किस्से हमें याद आने लगते हैं।

वस्तुत: ये सब उदाहरण एकतरफा और गलत तरीके से प्रस्तुत किए जाते हैं।

भगवान बुद्ध किसी संबंध से आजादी नहीं चाहते थे। उनके जीवन की दिशा वैराग्य की थी। बोधत्व की प्राप्ति के बाद वह समाज से मुक्त होकर कहीं नहीं गए। समाज के प्रति अपने कर्तव्य को समझा और समाज को नई दिशा दी। इसलिए बुद्ध का उदाहरण कम से कम रिश्तों में कथित आजादी चाहने वालों के मामले में नहीं दिया जा सकता है।

रही बात परिंदों की, तो किसने ये झूठ रचा है कि परिंदे आजाद होते हैं? परिंदे भी संबंधों से हमारी ही तरह बंधे होते हैं। उनमें भी ऊंची उड़ान के बाद अपने घोंसले तक आने की चाहत होती है। ऐसे में आजाद परिंदों जैसे शब्द जाल के माध्यम से रिश्तों की जिम्मेदारियों से भागना गलत है।

अब बात आती है कि रिश्तों में आजादी है क्या?

दरअसल रिश्तों में आजादी के अनर्गल से विचार के पीछे पश्चिम का प्रभाव है। वहां के बहुत से देशों में बच्चा वयस्क होते ही माता-पिता के बंधन से मुक्त हो जाता है। अपने खर्चे चलाने और जीवन की दिशा निर्धारित करने के लिए वह स्वतंत्र हो जाता है। इन्हीं किस्सों ने यहां भी रिश्तों में आजादी खोजने के विचार को हवा दी है।

हमें यह समझना होगा कि रिश्ते बंधन नहीं होते हैं। रिश्ते आपकी सफलता की यात्रा में बाधक नहीं अपितु सहायक होते हैं। आप जीवन में कुछ बनना चाहते हैं, तो कहीं न कहीं उसकी प्रेरणा रिश्तों से ही मिलती है। आप अपने माता-पिता व परिवार के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं। आप अपने बच्चों के लिए कुछ अच्छा चाहते हैं। यही चाहत आपको सफलता की राह पर लेकर जाती है।

आजाद होकर जीवन जीने जैसा कुछ नहीं होता है।

संबंधों से आजाद रहकर जीने जैसा कुछ भी संभव नहीं है। जब कोई रिश्तों से आजाद रहने की बात कहे, तो उससे यह जरूरी पूछिए कि रिश्तों से विहीन होकर वह कैसे जीना चाहता है? क्या उसे कोई रिश्ता नहीं चाहिए? और अगर उसे कुछ चुनिंदा रिश्तों की चाहत है, इसका अर्थ है कि वह बस रिश्तों के आजादी के नाम पर बेकार ही गाल बजाता है।  हमें यह रिश्ता चाहिए, वह नहीं चाहिए, इस तरह से रिश्तों से आजादी तो नहीं मिल सकती है। हमें मुसीबत में काम आने वाला दोस्त तो चाहिए, लेकिन हमें ऐसा कोई नहीं चाहिए, जो हमसे यह उम्मीद रखे कि हम उसकी मुसीबत में काम आएंगे।  हमें ऐसे माता-पिता की चाहत तो है कि जो बिरला और अंबानी की तरह हमारे लिए संपत्ति छोड़ जाएं, लेकिन हम ऐसा पुत्र नहीं बनना चाहते, जो माता-पिता की सेवा करे। हमें ऐसी पत्नी या ऐसा पति तो चाहिए जो हमें हर मोड़ पर समझे और हमारे साथ खड़ा रहे, लेकिन हम स्वयं सामने वाले के लिए ऐसा जीवनसाथी बनने का प्रयास नहीं करते हैं।

असल में इस कथित आजादी का बिगुल बजाने वाले निरे स्वार्थी होते हैं। वे रिश्तों से आजादी नहीं, बल्कि जिम्मेदारियों से भागना चाहते हैं। उनकी आजादी का पूरा प्रलाप बस जिम्मेदारी से भागने के लिए होता है। हमें पुत्र के रूप में माता-पिता के प्रति जिम्मेदारी न निभानी पड़े। हमें भाई के रूप में भाई या बहन के लिए जिम्मेदारी न निभानी पड़े। हमें पति या पत्नी के रूप में कोई जिम्मेदारी न निभानी पड़े। हमें शिष्य होकर गुरु के प्रति कोई जिम्मेदारी न निभानी पड़े। हमें समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी न निभानी पड़े।

इन सब जिम्मेदारियों से भागने और स्वयं को सही सिद्ध करने के प्रपंच का नाम है आजादी से जिंदगी जीना।

हमें लिव-इन इसलिए नहीं पसंद है कि यह किसी को जीवन जीने का अधिकार देता है, बल्कि हमें लिव-इन इसलिए चाहिए कि यह जिम्मेदारी से बचना सिखाता है। जब तक साथ सही लगेगा, चलाएंगे। जैसे ही जिम्मेदारी निभाने की बारी आएगी, किनारे हो जाएंगे, यह कहते हुए कि हमें बंधकर जीना अच्छा नहीं लगता।

पति-पत्नी के मजबूत संबंधों में भी इसी आजादी का घुन लग गया है। जीवनसाथी से हमें किस बात की आजादी चाहिए होती है? यह भाव और जिम्मेदारियों का संबंध है। यह एक-दूसरे के कष्ट को समझने का संबंध है। यह एक-दूसरे से प्रेम प्रदर्शित करने का संबंध है। लेकिन हमारा अहं आड़े आ जाता है। यह संबंध एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ के लिए नहीं बना है। यह एक-दूसरे का हाथ थामकर आगे बढ़ने का संबंध है। यह सम्मान देने और सम्मान पाने का संबंध है।

वास्तव में जीवन में हर संबंध इन्हीं कुछ आधार पर चलता है।

विश्वास हर संबंध की सबसे बड़ी पूंजी है। विश्वास रखिए और विश्वास बनाए रखिए। सम्मान में कभी कमी न आने दीजिए। किसी भी संबंध की गरिमा बनाए रखना हर किसी की जिम्मेदारी है। इसमें न अभिमान को जगह मिलनी चाहिए और न ही झूठ को।

संबंधों से आजादी के नाम पर जीवन को कटी पतंग बना देने की गलती से बचना चाहिए। हो सकता है कि डोर से मुक्त होने के बाद कुछ समय पतंग थोड़ा और ऊंची जाए और मनचाहे तरीके से मनचाही दिशा में उड़े, लेकिन अंत में उसे कहीं गिरकर धूल ही खाना होता है। उस धूल से भी उसे कोई उठाएगा, तो ऊंचा उड़ाने के लिए फिर किसी न किसी डोर के ही साथ की जरूरत पड़ेगी।

(समाधान है… कॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिए… क्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)

 

 

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