भयहीन आदर

मुझे मेरे अधीनस्थ
अपनी मर्जी से

कभी कभार सलाम कर लेते हैं
मैं निहाल हो जाता हूँ

उनकी इस सलामी पर
और इस सलाम में

एक खासियत है ,
वो भिन्न भिन्न मुद्राओं में
भिन्न भिन्न अदाओं से

भिन्न भिन्न शब्दों द्वारा
करते हैं मेरा अभिवादन

क्योंकि मैं नहीं हूँ
पावरफुल अधिकारी

बीच का सरकारी
अधिकारी हूँ , अधिकारहीन।

सिर्फ फुफकार भरने का
मुझे प्राप्त है अधिकार।

किसी भी परिस्थिति में
काटने हेतु मैं

नहीं कर सकता प्रहार।
सीधा कहूँ तो

विषदंतहीन हूँ।
फिर मुझे वे

दूध क्यों पिलाने लगे ?
उनका ये अभिवादन मुझे

कुछ अटपटा तो लगता है।
कभी कभार दिल में

तीर सा भी चुभता है ,
और फिर मैं जब सोच में

गहरे उतरता हूँ
तो अपनापन जैसा

मुझको यह दिखता है।
अपने नजदीक वो

मुझे जब पाते हैं ,
तभी तो भय से विहीन

सहज भाव से उनके
किसी भी मुद्रा में

हाथ उठ जाते हैं।
ह्र्दय से आते हैं।

सच्चा बन जाते हैं।
आखिर वो क्यों नहीं

काटने वालों के साथ
ऐसा कर पाते हैं ?

तथाकथित शिष्टता से
एक रूप में ही क्यों

उन्हें पेश आते है?
,तो भय बिनु हो ही न प्रीत ,

नहीं चाहिए मुझे ये सीख।
मैं विषहीन ही अच्छा हूँ।

विषधर बनकर मुझको
आदर नहीं लेना है।

भय से कंपकपा करके
दूध नहीं पीना है।

उपरोक्त पक्तियां बी. एन. झा. द्वारा लिखित पुस्तक इंद्रधनुष से ली गई है।