गिरता स्तर

 

रद्दी लेने वाले ने
मेरे द्वारा विक्रय हेतु

दी गई रद्दी को
रद्दी करार दिया।

लेने से इन्कार किया।
पर मेरे अनुरोध पर

कुछ हल्के विरोध पर
एक रद्दीयानी हंसी

हंसकर इस मध्यमवर्गी
वेतन भोगी की

आधा स्वस्थ , आधा रोगी की
रद्दी हालत देखकर

रद्दी लेने हेतु , तनिक देर
सोच में खो गया।

बाद में रद्दी लेने
राजी वह हो गया।

पर मैं तब हैरान हुआ
जब मेरी रद्दी में से

लगभग आधी रद्दी छाँटकर
मेरी नजरों के सामने

रद्दी को ढेर पर
झट उसके फेंक दी।

मैंने सप्रेम कहा
रद्दी तो रद्दी है।

पृथकवादी की तरह क्यों
अलग इन्हें करते हो ?

उपर वाले से क्यों
तुम नही डरते हो ?

रद्दीक्रेता ने भी
सप्रेम कहा

बाबूजी , आप तो
पढ़े लिखे विद्वान हो

पर आज की हालत से
शायद अनजान हो।

सुनो –
अब तो इस देश में

हर काम हर चीज की तरह
अफसरों की तमीज की तरह

दिग्गज नेता की तरह
आधुनिक कविता की तरह

शिक्षकों के आचार की तरह
शिक्षार्थियों के व्यवहार की तरह

न्याय व कानून की तरह
साफ साफ खून की तरह

स्वदेशी समाज की तरह
भारतीय मिजाज की तरह

सद्भभाव सदाचार की तरह

सादे विचार की तरह
कितना बताऊं मैं ?

मिलाजुलाकर कहिए कि
मजहबी नेक नियत की तरह।

लोगों की आदमीयत की तरह।
इस रद्दी की क़्वालिटी  भी

रद्दी से रद्दी हो रही है।
मूल्य अपना खो रही है।

उपरोक्त पक्तियां बी. एन. झा. द्वारा लिखित पुस्तक इंद्रधनुष से ली गई है।